Sunday 7 April 2013

राहत इन्दौरी की गज़लें

राहत इन्दौरी

उसकी  कत्थई  आँखों  में हैं जंतर-मंतर सब
चाक़ू--वाक़ू,    छुरियाँ--वुरियाँख़ंजर--वंजर सब

जिस दिन  से  तुम  रूठीं मुझ से रूठे-रूठे हैं
चादर--वादर, तकिया-वकिया,बिस्तर-विस्तर सब

मुझसे बिछड़ कर वह भी कहाँ अब पहले जैसी है
फीके  पड़  गए  कपड़े--वपड़े,  ज़ेवर--वेवर सब

आखिर  मै  किस  दिन  डूबूँगा फ़िक्रें करते है
कश्ती-वश्ती,   दरिया-वरिया,  लंगर-वंगर  सब

डा. राहत इन्दोरी


गुलाब ख़्वाब दवा ज़हर जाम क्या-क्या है
मैं आ गया हूँ बता इन्तज़ाम क्या-क्या है

फक़ीर शाख़ कलन्दर इमाम क्या-क्या है
तुझे पता नहीं तेरा गुलाम क्या क्या है

अमीर-ए-शहर के कुछ कारोबार याद आए
मैँ रात सोच रहा था हराम क्या-क्या है
डा. राहत इन्दोरी


ये ज़िन्दगी सवाल थी जवाब माँगने लगे
फरिश्ते आ के ख़्वाब मेँ हिसाब माँगने लगे

इधर किया करम किसी पे और इधर जता दिया
नमाज़ पढ़के आए और शराब माँगने लगे

सुख़नवरों ने ख़ुद बना दिया सुख़न को एक मज़ाक
ज़रा-सी दाद क्या मिली ख़िताब माँगने लगे

दिखाई जाने क्या दिया है जुगनुओं को ख़्वाब मेँ
खुली है जबसे आँख आफताब माँगने लगे

डा. राहत इन्दोरी

Thursday 4 April 2013

असलम मीर की गज़लें




 मेरे दोस्त असलम मीर की तीन बहतरीन ग़ज़ल 



ज़ात    बेरंग    तो   बेनुर   सा  लहजा   करता 
कब  तलक  तु  हि  बता  में तेरा सदमा करता 

कोइ   मिलता   जो   ख़रीदार   मुक़ाबिल  मेरे 
शौक़ से में भी दिल-ओ-जान  का सौदा करता

तुने  अच्छा  हि  किया  देके ना आने की ख़बर 
वर्ना    ताउम्र    तेरी   राह   में   देखा   करता 

जैसे करता है हर  एक  शख्स  पे ऐसे ही कभी 
अय  मेरे दोस्त  तू  ख़ुद पर भी भरोसा करता

थी  ये  दानाई   कहां  की  जो  अंधेरें  के  लीये 
ख़ुद ही घर अपना  जलाकर में उजाला करता

   सु-ए-आईना कभी  जाती जो  नज़रें  'असलम '    
जाने  क्या  क्या में  मुझे देख के सोचा करता 

- असलम मीर

 चाल  माना  की  मुखालिफ़  वो   मेरे   चलता   नहीं
ये    भी   सच  है  मात   देने  से  कभी  रुकता  नहीं

लोग   कहते   है   की  मेरी   ज़ात  हे  दरीया सिफ़त 
वाक़ई  ये  सच  हे  तो  में   किस  लिये  बहता  नहीं

बात  तन्हा  क्या  करे  वहम-ओ-गुमाँ की हम भला  
बाखुदा  अब  तो  हक़ीक़त  में  भी  कुछ  रक्खा नहीं 

ये  अलग  हे  बात  जो  आता   नहीं   तुझको  नज़र 
वर्ना   तेरे   वास्ते   दिल   में   मेरे  क्या क्या   नहीं

क़ार-ए-दरीया    की   हक़ीक़त   जान ने   के  वास्ते 
साहिलों   पर   बैठकर   हमने   कभी    देखा    नहीं 

जाबजा  सबकुछ  ही  मिल  जाता  हे   ता हद्दे-नज़र 
बस  वजूद-ए-ज़ात का नाम-ओ-निशाँ मिलता नहीं 

तज़किरा  करता हे 'असलम '  हम से  दीवानों पे वो 
जो  कभी    दीवानगी   की   राह   से   गुज़रा   नहीं
 
-असलम मीर    
     
जहाँ   देखो   वहाँ   मील   जायेगी  परछाइयाँ  अपनी
बहुत    मशहूर   हैं   इस   शेहर   में  रुस्वाइयाँ अपनी

तुम्हारी  तुम  ही  जानो एहले-दाना, ऐ  खिरद  वालो
हमे   तो   रास   आती   हैं   सदा   नादानियाँ   अपनी

दिले-नाशाद   तेरा   क्या   करे   आबाद   होकर   भी
हमेशा   याद   रहती   हैं   तुझे    बरबादियाँ    अपनी

बलन्दी  की  हकीक़त का  मज़ा  हरगिज़ न पाओगे
अगर   देखी   नहीं    हैं   आपने  नाकामियाँ   अपनी

हीसारे-दीद    से   बचना  बहुत  दुशवार  था लेकिन
खुदा  का   शुक्र   हे   महफूज़  हैं  खामोशियाँ अपनी

न  जाने  कब  मुकम्मल   देख   पायेगे   वजूदे-ज़ात
कहीं  हम   हे, कहीं पैकर, कहीं  परछाइयाँ   अपनी

सरापा    सुरते-गुलशन    सभी    से   पेश    आयेगी
नुमायाँ   हो  नहीं   सकती  कभी वीरानियाँ  अपनी

सुनेगा   और   कोई  किस तरह फरमाईये 'असलम '
कि जब तुम ही नहीं सुन पा रहे सरगोशियाँ अपनी

-असलम मीर    


Monday 4 March 2013

फ़रहत शहज़ाद

फरहत शहज़ाद की ग़ज़लें 



आँखों आँखों एक ही चहेरा
धड़कन धड़कन एक ही नाम

- फ़रहात शहज़ाद


भटका भटका फिरता हूँ 
गोया सूखा पत्ता हूँ 

साथ जमाना है लेकिन 
तनहा तनहा रहता हूँ 

धड्कन धड़कन ज़ख़्मी है 

फिर भी हसता रहेता हूँ 

जबसे तुमको देखा है

ख़ाब ही देखा करता हूँ

तुम पर हर्फ़ न आ जाये 

दीवारों से डरता हूँ 

मुझ पर तो खुल जा 'शहज़ाद'

मैं तो तेरा अपना हूँ



एक तो चेहरा ऐसा हो 
मेरे लिए जो सजता हो 

शाम ढले एक दरवाज़ा 
राह मेरी भी तकता हो 

मेरा दुःख वो समजेगा 
मेरी तरह जो तनहा हो 

एक सुहाना मुस्तकबिल 
ख़ाब सा जैसे देखा हो 

अब 'शहज़ाद' वो दीपक है 
जो तूफ़ान में जलता हो 



फ़ैसला तुमको भूल जाने का 
इक नया ख़ाब है दीवाने का 

दिल कली का लरज़ लरज़ उठा 
ज़िक्र था फिर बहार आने का

हौसला कम किसी में होता है
जीत कर ख़ुद ही हार जाने का 

जिंदगी कट गई मनाते हुए 
अब इरादा है रूठ जाने का 

आप 'शहज़ाद' की न फ़िक्र करे 
वो तो आदी है ज़ख्म खाने का 


इससे पहले के बात टल जाये
आओ एक दौर और चल जाये

आँसुओं से भरी हुई आँखें
रोशनी जिस तरह पिघल जाये

दिल वो नादान शोख़ बच्चा है
आग छूने पे जो मचल जाये

तुझको पाने की आस के फल से
ज़िंदगी की रिदा न ढल जाये

बख़्त मौसम हवा का रुख़ जाना
कौन जाने के कब बदल जाये




खा कर ज़ख़्म दुआ दी हमने
बस यूँ उम्र बिता दी हमने


रात कुछ ऐसे दिल दुखता था
जैसे आस बुझा दी हमने

सन्नाटे के शहर में तुझको
बे-आवाज़ सदा दी हमने


होश जिसे कहती है दुनिया
वो दीवार गिरा दी हमने


याद को तेरी टूट के चाहा
दिल को ख़ूब सज़ा दी हमने


'शह्ज़ाद' तुझे समझायें
क्यूँ कर उम्र गँवा दी हमने





लुत्फ़ जो उसके इंतजार में है
वो  कहाँ मौसम-ए-बहार में है

हुस्न जितना है गाहे गाहे में
कब मुलाकात-ए-बार-बार में है

जान-ओ-दील से में हारता ही रहू
गर तेरी जीत मेरी हार में है

जिंदगी भर की चाहतों का सिला
दील में पैबस्त नोक-ए-खार में है

क्या हुआ गर ख़ुशी नही बस में
मरना तो इख़्तियार में है



लमहों की जागीर लुटा कर बैठे है
हम घर की दहलीज़ पे आ कर बैठे है

लिखने को उनवान कहाँ से लाये अब
काग़ज़ से एक नाम मिटा कर बैठे है

हो पाए तो हँस कर दो पल बात करो 
हम परदेसी दूर से आ कर बैठे है

उठेंगे जब दिल तेरा भर जायेगा
ख़ुद को तेरा खेल बना कर बैठे है

जब चाहो गुल शम्मा कर देना 'शहज़ाद'
हम अंदर का दीप जला कर बैठे है




मर मर कर जीना छोड़ दिया 
लो हमने पिना छोड़ दिया 

खाबों के खयाली धागों से 
ज़ख्मों को सीना छोड़ दिया

ढलते ही शाम सुलू होना 
हमने वो करीना छोड़ दिया

तूफ़ान हमे वो रास आया
के हमने सफीना छोड़ दिया

मय क्या छोड़ी के लगता है
 जीते जी जीना छोड़ दिया

'शहज़ाद' ने खाबों में जिना
ऐ शोख़ हसीना छोड़ दिया



तेरा मिलना बहुत अच्छा लगे है 
मुझे तु  मेरे दुःख जैसा लगे है 

चमन सारा कहे है फूल जिसको
मेरे आँखों को तुज चेहरा लगे है

रगों में तेरी ख्वाहिश बह रही है
ज़माने को लहू दिल का लगे है

हर इक मजबूर सीने में मुझे तो
धड़कन वाला दिल अपना लगे है

सफर कैसा चुना 'शहज़ाद' तूने
हर एक मंजिल यहाँ रस्ता लगे है


* * *




ज़िंदगी को उदास कर भी गया
वो के मौसम था इक गुज़र भी गया



सारे हमदर्द बिछड़े जाते हैं
दिल को रोते ही थे जिगर भी गया



ख़ैर मंज़िल तो हमको क्या मिलती
शौक़-ए-मंज़िल में हमसफ़र भी गया


मौत से हार मान ली आख़िर
चेहरा-ए-ज़िंदगी उतर भी गया


क्या टूटा है अन्दर अन्दर, क्यू चेहरा कुम्हलाया है
तनहा तनहा रोने वालों, कौन तुम्हें याद आया 

चुपके चुपके सुलग रहे थे, याद में उनकी दीवाने

इक तारे ने टूट के यारों, क्या उनको समजाया है ?

रंग बिरंगी इस महफ़िल में, तुम क्यूं इतने चुप चुप हो

भूल भी जाओ पागल लोगों, क्या खोया क्या पाया है

शेर कहाँ है खून है दिल का, जो लफ्जों में बिखरा है

दिल के ज़ख्म दिखा कर हमने, महफ़िल को गरमाया है

अब 'शेह्ज़ाद' ये जूठ न बोलो, वो इतने बेदर्द नहीं

अपनी चाहत को अभी परखो, गर इलज़ाम लगाया है 
                                 * * *

सबके दिल में रहता हूँ, पर दिल का आँगन खाली है 
खुशिया बाँट रहा हु जग में अपना दामन खाली है 

गूल रुत आयी कलियाँ चटकी पत्ती पती मुस्काई 
पर इक भंवरा ना होने से गुलशन गुलशन खाली है

दर दर की ठुकराई हुयी अई महबूबे तनहाई
आ मिल जुल कर रह ले, इसमें दिल का नशेमन खाली है

 फ़रहात शहज़ाद

Sunday 3 March 2013

फ़रहत शहज़ाद की गज़लें



खुली जो आँख तो वो था न वो जमाना था 
दहकती  आग थी, तन्हाई, थी फ़साना था 

ये क्या के चंद ही कदमो पे थक के बैठ गये 
तुम्हें  तो  साथ  मेरा  दूर तक निभाना था 

ग़मो  ने बाँट  लिया  है मुजे  यूं  आपस में 
के  जैसे  मैं  क़ोई  लूटा  हूआ  ख़ज़ाना था 

मुझे  जो  मेरे  लहू   में  डुबो  के  गुजरा है 

वो  कोंई  गैर  नहि  यार  एक   पुराना  था 

ख़ुद अपने हाथ से 'शहज़ाद' उस को काट दिया 

के जिस दरख्त के टहनी पे आशियाना था 


फ़रहत शहज़ाद 


फ़रहत शहज़ाद