Sunday 23 June 2013

किताबें बोलती है - 4


मिज़ाज़ कैसा है : अनवारे इस्लाम


बात करती हुई ग़ज़लों की किताब 


सूर तुलसी हों, मीरो ग़ालिब हों
सब मेरा खानदान है बाबा 
* * *
आज मैंने मना लिया उसको
मान जाएगा अब खुदा मेरा 
* * *
जो मस्जिद जा रहे है उनसे कह दो
कोई बच्चा अभी तक रो रहा है 

कोई खिड़की नहा गई होगी,
धूप कमरे में आ गई होगी।

जब वो आँगन में आ गई होगी,
चाँदनी तो लजा गई होगी।

मेरे हिस्से की नींद ग़ायब है,
उसकी नींदों में आ गई होगी।

शाम चहरा बिगाड़ बैठी है,
राह में धूप खा गई होगी।

ज़ख्म ख़ुद ही कुरेदता है वो,
लज़्ज़ते दर्द भा गई होगी।
* * *
          मोहतरम अनवारे इस्लाम साहब से कभी मिला नहीं हूँ पर फोन पर अकसर बातें होती है। पहेली बार मिलाने का , बात कराने का श्रेय जाता है असलम मीर को। फिर गूगल से मिले नीरज जी, और पढली साहब की किताबों की दुनिया फिर तो मेने भी ब्लॉग बनाया। फिर अनवारे इस्लाम साहब से बात की और किताब मांगली या यु कहो परेशान कर के ली। 
          शायर होना बहोत बड़ी बात है पर उससे भी बड़ी बात है एक बहोत बड़ा इन्सान होना।  मोहतरम अनवारे इस्लाम साहब वो शख्सियत है की आप से जो एक बार बात करता है साहब का हो जाता है। थोड़े दिन गुजरे नहीं की फोन आया नहीं। हिन्दी-उर्दू का द्वैमासिक सुखनवर सालो से चला रहे है। ऐ बहोत बड़ी सिध्धि है।

ऐसा हो कोई काम के पहचान बन सके
दुनिया की दास्ताँ से हटाकर रखे जिसे 
* * *
हम फ़रिश्ते नहीं है इन्सां हैं
रोज़ जीते है रोज़ मरते हैं 
* * *
          मेरा प्रयास समीक्षा नहीं है क्यूं की में न तो ईतना ग़ज़ल के बहर के बारे में जानता हूँ न वज़न के बारे में और न तो शाइरी के शिल्प और अरुज़े फ़िक्रो-फ़न के बारे में। मैं तो सिर्फ ग़ज़ल को महसूस करता हूँ। तो पेश है किताब के कुछ अंश।
          मोहतरम अनवारे इस्लाम साहब ने सामाजिक एकाकीपन, माहौल का दबाव और असुरक्षा को देखा और महसूस किया है तभी वो लिखते है -

लोग ऐसी मिसाल देते हैं,
नेकी दरया में डाल देते हैं।

राम बन जायेगा किसी दिन तू,

तुझको घर से निकाल  देते हैं।

आ करें हार-जीत को आसाँ,

एक सिक्का उछाल देते हैं।

घर जो लौटूँ तो फिर सवाल उसके,

और उल्जन में डाल देते हैं।

कोई घटना हो मीडिया कर्मी,

सारी ख़बरे उबाल देते हैं।

कोई उत्तर नहीं मगर चहरे,

कितने सारे सवाल देते हैं।
          

          मोहतरम अनवारे इस्लाम साहबने 'इसरो' भारत शासन और म.प्र. शासन के लिए धारावाहक एवं टेली फ़िल्में भी लिखी है,बाल साहित्य पर अनेकों तथा साक्षरता साहित्य पर 65 पुस्तकें प्रकाशित हैं। और ए भी बता दूँ कि उनकी अनुवादित पुस्तकों की संख्या भी 40 के लगभग है। 
          अनवारे इस्लाम साहब सम्पादक, पत्रकार और सामाजिक विचारधारा से जुड़े है और इसी लिए उनकी ग़ज़लों में ए प्रभाव साफ दिखाय देता है -

यूं तो होने को क्या नहीं होता
तुमसे मेरा भला नहीं होता 

सारा झगड़ा फ़क़त अना का है,
वर्ना कुछ मसअला नहीं होता 

भाई, भाई का साथ देता है
और कोई सगा नहीं होता 

सुहबतों से मिजाज़ बनता है
कोई अच्छा-बुरा नहीं होता

कौन करता है फ़ैसले मेरे
मुझको कुछ भी पता नहीं होता

खा न जाना फ़रेब चहरों से
इनपे सब कुछ लिखा नहीं होता 

            सीधी-सादी और सरल भाषा में अनवारे इस्लाम साहब अपनी बात कहेते है और साथ में मीर और निदा की  तरह ख़याल  पर शिल्प  को हावी  न होने देने के हामी है। उनकी गज़लें बयान और कथ्य की प्रगाढ़ता पर अधिक केन्द्रित है और शब्दों की कारीगरी में उनकी अधिक रूचि नहीं हैं।

नहीं आए हैं इसमें दाग लेकिन
मिरी चादर पुरानी हो रही है 
* * *
सच को छुपा के तूने किसी को बचा लिया
तेरा ये जूठ बोलना अच्छा लगा मुझे
* * *
याद रखते जो तुझको ख़ुशियों में
ज़िन्दगी यूँ दुखी नहीं होती
* * *
इसको तूफ़ान ही सँभालेंगे
नाव तो छोड़ दी है पानी में
* * *
काम से फुर्सत मिली न उम्र भर
और नहीं मालूम क्या करता रहा
* * *
उसकी आँखों में आ गए आँसू
मैंने पूछा मिज़ाज़ कैसा है
* * *
नये मौसमों की ये सौगात होंगे
मिलें ज़ख्म जो भी मुहब्बत से रखना

          इस किताब से कौन सी गज़ल पेश करू !!!कौन सा शेर !!!! पूरी किताब लाज़वाब है।

किताबें तुम्हारी महकती रहेंगी
हमारे ख़तों को हिफ़ाज़त से रखना
* * *
मैं लफ़्ज़ों में ख़ुद को समेटूँ तो कैसे
वो सुनना मिरी दास्ताँ चाहते हैं
* * *
जाने कितना रुलाएँगी ग़ज़लें मिरी
जाने किस-किस की पल्कें भिगो जाउँगा


          मिज़ाज़ कैसा है के शेर सिर्फ शेर नहीं है यह एक दस्तावेज भी है। अगर आप और हम इसकी तफसील में उतरना चाहते है तो मुहतरम अनवारे इस्लाम की तखलीक 'मिज़ाज़ कैसा है ' से गुजर जाइये-इस किताब को पढ़ते वक़्त हम कभी एक सहरा से गुजतें है जहाँ बिखरी उम्मीदों की रेत चमकती है। एक वीराने से गुजर जायेंगे जहाँ ख़ुलूस की खुश्बू सिर्फ खुद के ज़ज्बे के सिवा कहीं और से नहीं हासिल होती और आप बिलाशक़ एक मक्तल से गुज़र जायेंगे। उम्मीदों के बंधे हाथ बेहिसी की सूली पर वक़्त के हाथों अपना सर कलम होने का इंतजार कर रहे है।शाईर ने अपनी ज़हानत और शाईस्तगी पूरे सफ़र के दौरान बरकरार रखी है।

तल्ख गर ज़िन्दगी नहीं होती 
शाईरी, शाईरी नहीं होती 

हम न तुझको तलाश कर पाते
हाँ अगर बेख़ुदी नहीं होती

हमने केवल खुदा को पूजा है 
गैर की बन्दगी नहीं होती 

मुस्कुराके जवाब दे देते 
मुझको शर्मिंन्दगी नहीं होती 


          अनवारे इस्लाम साहब ने अपने कुछ पसंदीदा अल्फाज़ से कमाल के अशआर तख्लिक़ किये है। मिसाल के तौर पर उडान,अँधेरा,उजाला,कश्ती,परिन्दा आदी ............ हम चूनते है "घर"-

है मुश्किल पिता जी के घर को बचाना
मिरे भाई अपना मकाँ चाहते है
* * *
घर में तो मिरे कोई सामान नहीं है
ग़ालिब की ग़ज़ल मीर का दीवान नहीं है
* * * 
बारिशें पत्थरों की हम पर थीं
लोग महफ़ूज़ कांच-घर में थे
* * *
एक घर था बड़ा सा यहाँ पर कभी
छोटे-छोटे कई इसमें घर हो गए
* * *
बस ये उम्मीद लेकर गुजर जाएँगे
लौटकर हम कभी अपने घर जाएँगे
* * *
घर में रख दे तमाम नैतिकता
जैसा करते है लोग वैसा कर
* * *
बैठ पाया नहीं कभी घर में
कट गई उम्र आने-जाने में
* * *
लेके उम्मीदे निकलता हूँ मैं क्या-क्या घर से
रंग उड़ जाता है जब शाम को घर जाता हूँ
* * *
जाने क्या-क्या जमा किया घर में
और समझता रहा ये मेरा है
* * *
कई कमरे हैं उसके पास लेकिन
वो घर में एक कोना चाहता है
* * *
आँखों में मेरी झांक के अंदर भी देख ले
देखा है सिर्फ मुझको मिरा घर भी देख ले
* * *
अजनबी हो गए दरो-दीवार
घर के अन्दर भी घर नहीं लगता
* * *
क्या-क्या न एक झोंके से पल में बिखर गया
मैं मुत्मईन था खूब के सब कुछ तो घर में है
* * *
वो आए मिरे घर में हैं, क्या पूछना मेरा
मैं भी बहुत अच्छा मिरा महमान भी अच्छा 

          इस किताब को पाना बहुत आसान है-
प्रकाशक : आलेख प्रकाशन 
वी-8, नवीन शाहदरा
दिल्ली-110032

          अनवारे इस्लाम साहब से फेसबुक पर मिलने का लिंक 
मोबाइल : 09893663536

            अनवारे इस्लाम साहब का इ-मेल पता 

          सुखनवर के लिए पत्र व्यवहार -
सी-16, सम्राट कोलोनी अशोक गार्डन, भोपाल-462023
मोबाइल : 09893663536
ई-मेल : sukhanwar12@gmail.com

          मेरी पोस्ट से कहीं बेहतर पोस्ट पढने के लिए और किताब के बारे में ज्यादा जानने के लिए निचे दी गयी लिंक पर क्लिक करे -

जाते जाते अनवारे इस्लाम साहब की कुछ गज़लें -

हवा के साथ चरागों ने दोस्ती कर ली
अजीब लोग हैं घबरा के ख़ुदकुशी कर ली

बहुत फ़रेब है रिश्तों में चाँद सूरज के
उज़ाले माँग के लोगो ने रोशनी कर ली

दिलों के मामलें कैसे दिमाग समझेंगे
इसी गुमान में किस-किस से दुश्मनी कर ली

गुज़ार दी शबे तारीक गीत गा-गाकर
दिलों में दर्द लिए हमने ज़िन्दगी कर ली

चलो के टूट गया तेज़ धूप का जादू
लहू बखेर के सूरज ने ख़ुदकुशी कर ली
* * *
झूठ बोला है किस सफाई से
ऐसी उम्मीद थी न भाई से

इतना कहते हुए झिझक कैसी
काम बिगड़े भी है भलाई से

बात घर की है घर में रहने दे
फ़ायदा क्या है जग हंसाई से

बरकतें ही न घर की उड़ जाएँ
बचके रहिए ग़लत कमाई से

मोड़ आने लगा कहानी में
रोक दे दास्ताँ सफ़ाई से

सूद में क़िस्त जाती रहती है
अस्ल चुकता नहीं अदाई से
* * *
सगे भाई हैं उनमें प्यार भी है
मगर आँगन में इक दीवार भी है 

बहुत मासूम है चहरा किसी का
नहीं लगता के दुनियादार भी है

बहुत सी खूबियाँ है उसमें लेकिन
कमी बस ये के वो खुद्दार भी है

वो छुप-छुपकर जो साजिश कर रहा है
वो मेरा ख़ास रिश्तेदार भी है

चलो उस पेड़ को पानी पिला दें
ज़ईफ़ुल-उम्र सायादार भी है

वो करता है बहुत से कम फिर भी
हक़ीक़त ये के वो बेकार भी है

( मुझसे कोइ गलती रही हो तो माफी चाहता हूँ  )

Friday 7 June 2013

अमजद इस्लाम अमजद की गज़लें

अमजद इस्लाम अमजद




तुम से बिछड़ कर पहरों सोचता रहता हूँ 
अब में क्यूँ और किस की खातिर ज़िंदा हूँ 

मेरी सोचें बदलती जा रही हैं 

के यह चीजें बदलती जा रही हैं 

तमाशा एक है रोज़-ए-अज़ल से 

फ़क़त आँखें बदलती जा रही हैं

बदलते मंज़रों के आईने में

तेरी यादें बदलती जा रही हैं

दिलों से जोडती थी जो दिलों को

वोह सब रस्में बदलती जा रही हैं

न जाने क्यों मुझे लगता है अमजद

के वो नजरें बदलती जा रही हैं


हमें तो वो बोहत अच्छे लगे हैं 
न जाने हम उन्हें केसे लगे हैं 

तो क्या यह पर निकलने का है मौसम
हवा मैं जाल से खुलने लगे हैं

नए कातिल का इस्तकबाल है क्या 
पुराने ज़ख़्म क्यों भरने लगे हैं

अजब है यह तलिस्स्म हम-जुबानी
पराये लोग भी अपने लगे हैं 

दिलों का भेद अल्लाह जनता है 
बजाहिर आदमी अच्छे लगे हैं
चलेगी यह परेशानी कहाँ तक 
बता ए घर की वीरानी कहाँ तक 

बहोत लम्बी थी अब के, खुश्क'साली 
बरसता आंख से पानी कहाँ तक 

तेरे टूटे हुए गजरों के होते 
महेकती रात की रानी कहाँ तक 

रुकेगी कब तलक साँसों में खुशबु 
उड़ेगा रंग यह धानी कहाँ तक 

खिलौना है इसे तो टूटना है 
करें दिल की निगेहबानी कहाँ तक 

उसे बादल बुलाते है हमेशा 
समंदर मैं रहे पानी कहाँ तक 

आज यूँ मुस्कुरा के आये हो 
जेसे सब कुछ भुला के आये हो 

यह निशानी है दिल के लगने की 
यह जो तुम आज जा के आये हो 

क्यूँ झपकती नहीं मेरी आँखें 
चांदनी में नहा के आये हो 

दिल समंदर में चाँद सा उतरा 
केसी खुशबु लगा के आये हो 

क्या बहाना बना के जाना है 
क्या बहाना बना के आये हो 

आ गये हो तो आओ, बिस्मिल्लाह 
देर, लेकिन लगा के आये हो 


चाँद के साथ कई दर्द पुराने निकले 
कितने ग़म थे जो तेरे ग़म के बहाने निकले 

फ़स्ले-ए-गुल आई फिर इक बार असीरान-ए-वफ़ा 
अपने ही खून के दरया में नहाने निकले 

दिल ने इक ईंट से  तामीर किया ताज-महल 
तूने इक बात कही लाख फ़साने निकले 

दश्ते-ए-तनहाई-ए-हिज्राँ में खड़ा सोचता हूँ 
हाय क्या लोग मेरा साथ निभाने निकले
.......
कहाँ आ के रुकने थे रास्ते कहाँ मोड़ था उसे भूल जा
वो जो मिल गया उसे याद रख जो नही मिला उसे भूल जा

वो तेरे नसीब की बारिशें किसी और छत पे बरस गई
दिल-ए-बेखबर मेरी बात सुन उसे भूल जा उसे भूल जा 

मैं तो गुम था तेरे ही ध्यान में तेरी आस में तेरे गुमान में
हवा कह गई मेरे कान में मेरे साथ आ उसे भूल जा

तुझे चाँद बन के मिला था जो तेरे साहिलों पे खिला था जो 
वो था एक दरिया विसाल का सो उतर गया उसे भूल जा 

Saturday 1 June 2013

निदा फ़ाज़ली की ग़ज़लें

निदा फ़ाज़ली 

निदा फ़ाज़ली

गरज बरस प्यासी धरती पर पानी दे मौला
चिड़ियों को दाने,बच्चों को गुडधानी दे मौला

दो और दो का जोड़ हंमेशा चार कहां होता है
सोच समजवालों को थोड़ी नादानी दे मौला

फिर रोशन कर ज़हर का प्याला चमका नई सलीबें
झुठों की दुनिया में सच को ताबानी दे मौला

फिर मूरत से बाहर आकर चारो ओर बिखर जा
फिर मंदिर को कोई मीरा दीवानी दे मौला

तेरे होते कोई किसी की जान का दुश्मन क्यों हैं
जीने वालों को मरने की आसानी दे मौला

* * * * *

अब ख़ुशी है न कोई ग़म रुलाने वाला
हमने अपना लिया हर रंग ज़माने वाला

हर बे-चेहरा सी उम्मीद है चेहरा चेहरा

जिस तरफ़ देखिये आने को है आने वाला

उसको रुखसत तो किया था मुझे मालूम न था

सारा घर ले गया घर छोड़ के जाने वाला

दूर के चाँद को ढूँढ़ो न किसी आंचल में

ये उजाला नहीं आँगन में समाने वाला

इक मुसाफ़िर के सफ़र जैसी है सबकी दुनिया

कोई जल्दी में कोई देर में जाने वाला


अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफर के हम हैं
रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं

पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता हैं
अपने ही घर में किसी दुसरे घर के हम है

वक़्त के साथ है मिट्टी का सफर सदियों से 
किसको मालूम है कहाँ के किधर के हम हैं

चलते रहते है की चलना है मुसाफ़िर का नसीब
सोचते रहते है कि किस रहगुज़र के हम हैं

Sunday 26 May 2013

अहमद फ़राज़

 अहमद फ़राज़ की ग़ज़लें 



अगर तुम्हारी ही आन का हैं सवाल 
चलो मैं हाथ बढ़ाता हूँ दोस्ती के लिए 
- अहमद फराज़ 


शोला था जल-बुझा हूँ हवायें मुझे न दो
मैं कब का जा चूका हूँ सदायें मुझे न दो

जो ज़हर पी चूका हूँ तुम्हीं ने मुझे दिया 

अब तुम तो ज़िन्दगी की दुआयें मुझे न दो

ऐसा कभी न हो के पलटकर न आ सकूं 

हर बार दूर जा के सदायें मुझे न दो

कब मुझ को एतराफ़-ए-मुहब्बत न था फराज़ 

कब मैंने ये कहा था सज़ायें मुझे न दो


सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते-जाते 
वरना इतने तो मरासिम थे की आते-जाते 

शिकवा-ए-जुल्मते-शब से तो कहीं बेहतर था 
अपने हिस्से की शमअ जलाते जाते 

कितना आसाँ था तेरे हिज्र में मरना जाना 
फिर भी इक उम्र लगी जाते-जाते 

उसकी वो जाने, पास-ए-वफा था की न था
तुम फराज़ अपनी तरफ से तो निभाते जाते 


जिंदगी से यही गिला है मुझे 
तू बहुत देर से मिला है मुझे 

हमसफ़र चाहिये हुजूम नहीं 
इक मुसाफ़िर भी काफ़िला है मुझे 

तू महोब्बत से कोई चाल तो चल 
हार जाने का हौंसला है मुझे 

लब कुशा हूं तो इस यकिन के साथ 
क़त्ल होने का हौंसला है मुझे 

दिल धड़कता नहीं सुलगता है 
वो जो ख्वाहिश थी,आबला है मुझे 

कौन जाने कि चाहतो में फराज़ 
क्या गंवाया है क्या मिला है मुझे 


किताबों में मेरे फ़साने ढूँढते हैं 
नादाँ हैं गुजरे जमाने ढूँढते हैं 

जब वो थे तलाशे-जिंदगी भी थी 
अब तो मौत के ठिकाने ढूँढते हैं 

मुसाफ़िर बे-खबर हैं तेरी आँखों से 
तेरे शहर में मैखाने ढूँढते हैं 

तुझे क्या पता ऐ सितम ढाने वाले 
हम तो रोने के बहाने ढूँढते हैं 

उनकी आँखों को यूं न देखो फराज़ 
नये तीर हैं, निशाने ढूँढते हैं 


इस से पहले की बेवफ़ा हो जाएँ 
क्यूं न ए दोस्त हम जुदा हो जाएँ 

तू भी हीरे से बन गया पत्थर
हम भी जाने क्या से क्या हो जाएँ

हम भी मजबूरियों का उज्र करें
फिर कहीं और मुब्तिला हो जाएँ

अब के गर तू मिले तो हम तुझसे

ऐसे लिपटे तेरी क़बा हो जाएँ

बंदगी हमने छोड़ दी फराज़
क्या करे लोग जब ख़ुदा हो जाएँ 
-अहमद फ़राज़

अहमद फ़राज़ और नूर जहाँ 

Wednesday 15 May 2013

किताबें बोलती है - 3


ज़ज्बात : मनु 


दूर जाने से किसने रोका है 
बस ख़यालों से परे रहने की 
इज़ाज़त नही तुझे 


तेरी तलाश जब भी ख़त्म करनी चाही मैंने
सारी दुनिया घूम कर 
बस ख़ुद को आईने में देख लिया 
तेरा वज़ूद इस कदर हावी है  मुझपर
* * *
''तसव्वुर ' बन के उसने 
'उसकी ' सारी ज़िन्दगी एक खूबसूरत ''ख़्वाब'' बना दी थी 
* * *
           यहाँ उस बेहतरीन किताब के अंश है जिसकी कवयत्री है ' मनु ' ! किताब का नाम है ज़ज्बात ! मनु जी से यूँ तो मेरी मुलाक़ात नही हुई पर मुलाक़ात हुई है यानि फेसबुक पर ! बातो बातो में पता चला किताब के बारे में, मेने पुछा कहा मिलेगी ? पता मिला, मंगवाई, और पढकर हैरान हो गया !! दर्द को क्या बयाँ किया है !!बहुत खूब !!

          पहले जान लेते है कवयत्री के बारे में ! मनु जी का जन्म देहरादून मे हुआ ! अंग्रेजी साहित्य में स्नात्कोत्तर की और तालीम भी इसी शहर से हासिल की ! ग़ज़लों-नज्मों-गीतों से बेहद लगाव रहा है ! इनके पसंदीदा शायर है गुलज़ार और उपन्यासकार अमृता प्रीतम है ! अमृता के उपन्यास ' नागमणि ' ने लिखने की ख्वाहिश पैदा की ! लिखने में इनकी कलम की रौशनाई ग़ज़ल, नज़्म, उपन्यास पर लफ्ज़ जडती है ! इनका पूरा नाम पूनम चन्द्रा है ! 'मनु ' इनका तखल्लुस है ! 2006 से कनाडा, ओंटारियो के ब्राम्पटन शहर में रह रही है ! यहाँ के ' हिंदी रायटर्स गिल्ड, कनाडा ' की सदस्य है और अपने ही आईटी- व्यवसाय से जुड़ी है ! इनकी जुबा में ' ज़ज्बात ' हर लम्हा खुद से हुई बात का जिक्र है,जो कहीं-न-कहीं पढने वाले के दिल की राह से होकर गुज़रता है ! लेकिन ये सिर्फ मनु जी के नहीं !हर एक इंसान के ज़ज्बात हैं ! आप पढोंगे तो शायद मेरी बात का समर्थन करेंगे  की ये ख़याल सिर्फ़ उनका ही नही हमारा भी हैं :-


वो ख़याल 
जो तेरी रह्गुज़र से हो कर गुज़रे 
बस वही 
' ज़ज्बात ' है !
* * *
राहों का ज़िक्र न हो तो 
अच्छा है 
मिलाती भी यही हैं 
और 
जुदा भी यही करती हैं 
एक शख्स की दो जुदा फ़ितरत
दिल को दुखाती हैं 
 कुछ अच्छा नहीं लगता !
* * *
मैंने इस तरह जिया है तुम्हें अपनी ज़िंदगी में 
की कभी तुम्हारी कमी महसूस ही नही हुई 
पर यकीन मानो 
बहुत कमी महसूस हुई है !
* * *
ज़िंदगी की किताब का वो पन्ना 
किसी का हो गया तो हो गया 
उसी पन्ने पर 
आप एक नई कहानी नहीं लिख सकते 
और वो पन्ना हमेशा मुड़ा रहता है !
* * *
          ' जज्बात ' ऐसे बेहतरीन खयालो से भरा पड़ा एक खज़ाना है ! लेकिन शर्त इतनी है इस ख्याल को पाने के लिए समंदर की गहराई में एक डूबकी लगानी होगी ! और आपको एसे मोती मिलेंगें कि आप मालामाल हो जायेंगे ! हर खयाल ऐसा हैं मानो ये हमारी ही कहानी  हों ! 

वो हर एक से दुआ लेता हैं  
सलाम करता हैं
सुना है वो आज कल अजनबियों से भी कलाम  करता हैं 
क्या मिल गया मुझे, उसे इतना जान के 
ख़ुदाया 
मैं उसके लिए अज़नबी क्यों नहीं !! 

           ' ज़ज्बात ' की कई प्रस्तुतियों में हम अपनी सोच को अभिव्यक्त होते पाते हैं ! हमे हैरत में डालने वाली बात तब होती है जब हम ऐसे अल्फाज़ को महसूस करते है जिसे हम व्यक्त नही कर सके !संपादक मुकेश मिश्र ने किताब में लिखा है- 'ज़ज्बात' में मनु जी ने एक निराले क़िस्म की शैली और शिल्प को तो .चुना ही- साथ ही अपने समय, काल, व्यक्ति और समाज के साझेपन को भी अभिव्यक्त किया है ! 'ज़ज्बात' की प्रस्तुतियां इस तथ्य का अनुभव कराती हैं की एक लेखक के रूप में मनु जी की आँखे कितनी चौकस है, और समय व् जीवन के अंधेरे-उजाले में एक साथ कितनी दूर तक देख सकती हैं और क्या खोज सकती है, और उनका अनुभव कितना व्यापक हैं ! उनकी प्रस्तुतियों की एक और विशेषता हैं- शब्दों में अर्थ जुटाने की और फिर उन अर्थों को खोलने की ! 'ज़ज्बात ' में मनु जी ने अपनी रचनात्मकता में असाधारण को खोजा है, और अपनी रचनात्मक सामर्थ्य द्वारा उसे प्रमाणित भी किया है !


          मनु जी के पसंदीदा शायर "गुलज़ार" है और यही कारण है की मनु जी के ख्यालो और ज़ज्बात में "गुलज़ार" का प्रभाव साफ-साफ दिखाय देता है ! वहीं गहराई  और ऊंचाई - नई सोच, बुलंद हौंसला !

मुहब्बत में 
वफ़ा का जिक्र क्यूँ लाते हो बार-बार 
ये उसने की हो या मैंने, क्या फ़र्क़ पड़ता है 
मतलब तो मुहब्बत से है, हाँ वो दोनों ने ही की थी 
मुझे याद हो वो भूल जाये, क्या फर्क पड़ता है 
* * *
पूरी तरह जीना कब का भुला दिया 
कुछ तुम में जिंदा हूँ 
कुछ खुँद में बाक़ी हूँ !

         लिजिये आपके लिए पेश है मनु जी की किताब ज़ज़्बात के लोकार्पण कार्यक्रम के कुछ अंश DD National से और रू-ब-रू होते है मनु जी से और उनकी आवाज़ से :- 


      

          इस किताब को पाने के लिए आपको ज्यादा तकलीफ़ नही उठानी पड़ेगी ! इस पुस्तक को ओन लाइन वेबसाइटो से खरीदा जा सकता है आप दी गइ लिंक पर क्लिक करे किताब से जुडी सारी जानकारी मिल जाएगी :-

          और फेसबुक वाले दोस्तों के लिए मनु जी से मिलने का लिंक :-

          साथ ही साथ जज़्बात का फेसबुक पेज के लिंक :-

          और अब आप यहाँ एक ग़ज़ल सुनिए :-              

                    जाते-जाते मनु  जी के अनमोल ख़याल के साथ आपको छोड़े जा रहा हूँ :-

 तेरा ज़िक्र आया 
और 
आँखों में आँसू आ गए 
तेरे एहसास में आज भी 
कितनी जुम्बिश है !
* * *
सारी चांदनी रात सिमटकर वहीं आ गयी 
जहाँ  तुम हो मेरे साथ मेरा चाँद बनकर 
कह दो इस जहाँ से आज बस चिरागों से ही काम चला ले !
* * *
ये जो दर्मियाँ एक फ़ासला रह गया था 
कहीं कुछ भी नहीं था 
इसीलिए बहुत ज्यादा रह गया था !
* * *
ख़्वाबों और ख्यालों पर 
उसकी सोच के जाले हैं 
अच्छा लगता है मुझे उसके नाम में .उलझकर 
बार-बार मरते रहना !
* * *
मुहब्बत में लफ्ज़ों का जिक्र ही क्यों हों 
मुहब्बत में क्या कभी,सब कुछ बयाँ हो पाया है 
हमेशा कहीं कुछ-न-कुछ छूट गया है 
और फिर 
पूरी तरह बयाँ हो जाये, ये ऐसी शय भी तो नहीं !
* * *
बुराइयों के नहीं 
यहाँ 
अच्छाइयों के सबूत देने पड़ते हैं !
* * *
( लिखने में गलती रही हो तो माफ़ी चाहता हूँ ! )