Sunday 13 August 2017

फरिहा नक़वी की ग़ज़लें

गज़लें

मिरी ज़ात के सुकूँ जा
थम जाए कहीं जुनूँ जा
रात से एक सोच में गुम हूँ
किस बहाने तुझे कहूँ जा
हाथ जिस मोड़ पर छुड़ाया था
मैं वहीं पर हूँ सर निगूँ जा
याद है सुर्ख़ फूल का तोहफ़ा?
हो चला वो भी नील-गूँ जा
चाँद तारों से कब तलक आख़िर
तेरी बातें किया करूँ जा
अपनी वहशत से ख़ौफ़ आता है
कब से वीराँ है अंदरूँ जा
इस से पहले कि मैं अज़िय्यत में
अपनी आँखों को नोच लूँ जा
देख! मैं याद कर रही हूँ तुझे
फिर मैं ये भी कर सकूँ जा
वो अगर अब भी कोई अहद निभाना चाहे
दिल का दरवाज़ा खुला है जो वो आना चाहे
ऐन मुमकिन है उसे मुझ से मोहब्बत ही हो
दिल बहर-तौर उसे अपना बनाना चाहे
दिन गुज़र जाते हैं क़ुर्बत के नए रंगों से
रात पर रात है वो ख़्वाब पुराना चाहे
इक नज़र देख मुझे!! मेरी इबादत को देख!!
भूल पाएगा अगर मुझ को भुलाना चाहे
वो ख़ुदा है तो भला उस से शिकायत कैसी?
मुक़्तदिर है वो सितम मुझ पे जो ढाना चाहे
ख़ून उमड आया इबारत में, वरक़ चीख़ उठे
मैं ने वहशत में तिरे ख़त जो जलाना चाहे
नोच डालूँगी उसे अब के यही सोचा है
गर मिरी आँख कोई ख़्वाब सजाना चाहे
शनासाई का सिलसिला देखती हूँ
ये तुम हो कि मैं आइना देखती हूँ
हथेली से ठंडा धुआँ उठ रहा है
यही ख़्वाब हर मर्तबा देखती हूँ
बढ़े जा रही है ये रौशन-निगाही
ख़ुराफ़ात-ए-ज़ुल्मत-कदा देखती हूँ
मिरे हिज्र के फ़ैसले से डरो तुम!
मैं ख़ुद में अजब हौसला देखती हूँ
लाख दिल ने पुकारना चाहा
मैं ने फिर भी तुम्हें नहीं रोका
तुम मिरी वहशतों के साथी थे
कोई आसान था तुम्हें खोना?
तुम मिरा दर्द क्या समझ पाते
तुम ने तो शेर तक नहीं समझा
क्या किसी ख़्वाब की तलाफ़ी है?
आँख की धज्जियों का उड़ जाना
इस से राहत कशीद कर!! दिन रात
दर्द ने मुस्तक़िल नहीं रहना
आप के मश्वरों पे चलना है?
अच्छा सुनिए मैं साँस ले लूँ क्या?
ख़्वाब में अमृता ये कहती थी
इन से कोई सिला नहीं बेटा
देख तेज़ाब से जले चेहरे
हम हैं ऐसे समाज का हिस्सा
लड़खड़ाना नहीं मुझे फिर भी
तुम मिरा हाथ थाम कर रखना
वारिसान-ए-ग़म-ओ-अलम हैं हम
हम सलोनी किताब का क़िस्सा
सुन मिरी बद-गुमाँ परी!! सुन तो
हर कोई भेड़िया नहीं होता
बीते ख़्वाब की आदी आँखें कौन उन्हें समझाए
हर आहट पर दिल यूँ धड़के जैसे तुम हो आए

ज़िद में कर छोड़ रही है उन बाँहों के साए
जल जाएगी मोम की गुड़िया दुनिया धूप-सराए

शाम हुई तो घर की हर इक शय पर कर झपटे
आँगन की दहलीज़ पे बैठे वीरानी के साए

हर इक धड़कन दर्द की गहरी टीस में ढल जाती है
रात गए जब याद का पंछी अपने पर फैलाए

अंदर ऐसा हब्स था मैं ने खोल दिया दरवाज़ा
जिस ने दिल से जाना है वो ख़ामोशी से जाए

किस किस फूल की शादाबी को मस्ख़ करोगे बोलो !!!
ये तो उस की देन है जिस को चाहे वो महकाए
* * * * *

Sunday 1 May 2016

सिराज फ़ैसल खान की ग़ज़लें और नज़्में

सिराज फ़ैसल खान 



माना मुझको दार पे लाया जा सकता है 
लेकिन मुर्दा शहर जगाया जा सकता है 

लिक्खा हैं तारीख़ सफ़हे सफ़हे पर ये 
शाहों को भी दास बनाया जा सकता है 

चाँद जो रूठा राते काली हो सकती है 
सूरज रूठ गया तो साया जा सकता है 

शायद अगली इक कोशिश तक़दीर बदल दें 
ज़हर तो जब जी चाहें खाया जा सकता है 

कब तक धोखा दे सकते है आईने को 
कब तक चेहरे को चमकाया जा सकता है 

पाप सभी कुटिया के भीतर हो सकते है 
हुजरे के अंदर सब खाया जा सकता है 

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वो बड़े बनते हैं अपने नाम से 
हम बड़े बनते है अपने काम से 

वो कभी आगाज़ कर सकहते नहीं 
ख़ौफ़ लगता है जिन्हे अंज़ाम से 

इक नजर महफ़िल में देखा था जिसे 
हम तो खोये है उसी मे शाम से

दोस्ती, चाहत, वफ़ा इस दौर में 
काम रख ऐ दोस्त अपने काम से

जिनसे कोई वास्ता तक है नहीं 
क्यों वो जलते है हमारे नाम से 

उसके दिल की आग ठंडी पड गयी
मुझको शोहरत मिल गयी इल्ज़ाम से

महफ़िलों में ज़िक्र मत करना मेरा 
आग लग जाती है मेरे नाम से 

*  *  *  *  * 
यहाँ तक आ गयी तन्हाई मेरी 
सदा देने लगी परछाई मेरी

में हर शै में उसीको देखता हूँ
परीशाँ  हैं बहुत बिनाई मेरी 

तअल्लुक तर्क़ होते ही अचानक 
बुराई बन गयी, अच्छाई मेरी 

बिछड़ते वक़्त ये लब सिल गए थे 
जुबां पर जम गयी थी काई,मेरी 

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नज़्म - तख्लीक़  

वो मुझसे कहती थी
मेरे शायर 
ग़ज़ल सुनाओ 
जो अनसुनी हो 
जो अनकही हो 
कि जिसके एहसास
अनछुए हों,
हों शेर ऐसे 
कि पहले मिसरे को
सुन के 
मन में 
खिले तजस्सुस 
का फूल ऐसा 
मिसाल जिसकी 
अदब में सारे 
कहीं भी ना हो....... 
में उससे कहता था 
मेरी जानां
ग़ज़ल तो कोई ये कह चुका है,
ये मोजज़ा तो 
खुदा ने मेरे 
दुआ से 
पहले ही कर दिया,
तमाम आलम की 
सबसे प्यारी 
जो अनकही सी 
जो अनसुनी सी 
जो अनछुई सी 
हसीं ग़ज़ल है--
"वो मेरे पहलू में 
   जलवागर है....... !!!"

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नज़्म - Nostalgia 

वो जब नाराज़ होती थी 
तो अपने गार्डन 
में जा के मुझको 
फ़ोन
 करती थी
सताने के लिए मुझको 
वो कहती थी 
बहुत बनने लगे हो तुम 
मज़ा तुमको चखाऊंगी 
तुम्हारी वो जो गुडिया है मेरे अंदर 
मैं उसकी 
उंगलियों में सैकड़ो कांटे 
चुभाऊंगी 
रुलाऊँगी 
मैं कहता था 
अगर तुमने 
मेरी प्यारी सी गुड़िया को 
रुलाया तो 
कसम से मैं 
तुम्हारा वो जो बाबू है 
मेरे अंदर 
मैं उसकी 
जान ले लूंगा....... !!!

* * * * * * *

नज़्म - मोबाइल फ़ोन 

वो मोबाइल तुम्हारा था 
मेरी जानां 
कि जिसकी CONTACT BOOK में 
मुझे हर दिन 
नया इक नाम मिलता था 
कभी बाबू 
कभी शोना 
कभी बुद्धू 
कभी पागल 

वो मोबाइल तुम्हारा था 
मेरी जानां 
कि जिसके खूबसूरत से कवर पे 
फ़ोन के पीछे 
तुम्हारे और मेरे नाम के 
पहले वो दो अक्षर 
चमकते मुस्कुराते थे 

तुम्हारे फ़ोन पर अक्सर 
मेरी तस्वीर 
बन के वॉलपेपर 
मुस्कुराती थी 
मेरी हर कॉल की जिसमे 
RECORDING SAVE रहती थी 

मेरी आवाज़ को तुमने,
तुम्हारे फ़ोन की रिंगटोन पे 
सेट कर के रक्खा था 
कोई भी CALL आती थी 
तो तुम हर CALL से पहले 
मेरी आवाज़ सुनती थी

अब इक मुद्दत से कुछ रिश्ता नहीं
उस से फ़ोन  से मेरा 

मेरी जानां......

ना उससे कॉल आती हैं 
ना उसपे कॉल जाती है .........!!!!

- - - - - - - - - - 

नज़्म - PERFUME 

तेरे परफ्यूम की खुशबू 
मेरी जानांं 
हमारे वस्ल पर पहले,
गले लगने से
मेरे फेवरेट 
स्वेटर पे 
मेरे साथ आई थी 
ये तेरे प्यार की 
तन पे मेरे 
पहली निशानी थी 
जिसे अब तक 
हिफ़ाज़त सी 
मेरी सारी 
मुहब्ब्त से 
सजा के मैंने रक्खा है 
ये खुशबू छूट ना जाए 
इसी दर से 
दोबारा 
मैंने उस स्वेटर को
 पहना है 
ना धोया है......... !!!
* * * * * *

सिराज फ़ैसल खान का फेसबुक लिंक 



Saturday 11 April 2015

शमीम हयात की ग़ज़लें और नज्में

शमीम हयात 

* * *
मिट  गये  सब   गिले रंज  जाता  रहा
वो   मुझे   देख  कर  मुस्कुराता  रहा

बाद  मुद्दत  के  लौटा   था  वो गाँव  में
सबको बचपन के किस्से सुनाता  रहा

ओढ  कर  शाल  बैठा  था  दालान  में
कौन  मेरी   गज़ल   गुनगुनाता  रहा

मेरी  यादों  के  जंगल  में  पागल हवा

बन  के  आया  था  वो सरसराता रहा

क्या खबर थी के आएँगी फिर आंधियाँ

मैं    मुंडेरों   पे   दीपक   जलाता  रहा

आखिरश मौत उसको भी लेकर गयी

वो जो  अपने  को  खुद  रब बताता रहा

जिसने कांटे बिखेरे  क़दम दर क़दम

उसकी राहों में मैं गुल बिछाता  रहा

वो तो  तकदीर में था  किसी और की

मैं   मुक़द्दर   जहाँ   आज़माता  रहा

अपने  इमाँ ' हयात ' हम बचाते रहे

गो   जमाना   हमें   आजमाता  रहा
*  *  *  *  *
* * *
बर्गद  जला  दिए  कभी  संदल जला दिए
हम ने  तुम्हारी याद  के जंगल जला दिए

धरती  तरस  रही  है  एक  एक  बूँद  को

लगता  है  तेज  धूप  ने बादल जला दिए

बचपन  को  फूल  बेंचते  देखा  है धूप में

क्या मुफलिसी ने मांओं के आँचल जला दिए

तुम तो ' हयात ' सब की ही बातों में आ गए

जो  भी मिले  थे  प्यार के वो पल जला दिए
*  *  *  *  *
* * *
ख़बर ये हो गयी कैसे ख़ुदा जाने ज़माने को
के मैं बेचैन रहेता  हूँ तेरे नज़दीक आने को

ज़मीनें हो अगर मशकूक तो रिश्ते नहीं उगते

भरोसा भी ज़रुरी है किसी का प्यार पाने को

दुपट्टा उसने ऊँगली पर लपेटा देर तक यूँ ही

न सुजा जब उसे कुछ भी नज़र मुझसे चुराने को

उसे भी थी ख़बर इसकी नहीं आसान यें इतना

मगर कहेता रहा मुझसे वो ख़ुदको भूल जाने को

बिछड़ते वक़्त बस सारे गिले शिकवे भुला देते

कहा था कब भला मैंने सितारे तोड़ लाने को

'हयात' आते फ़कत रस्मन दिलासे के लिए इक दिन

कोई आता नहीं हरगिज किसी के ग़म उठाने को
* * *
* * *
चाँद, सितारे, नदियाँ, सागर, धरती, अंबर महकेंगे
तुम आओ तो पतझड़ में भी गुल शाखों पर महकेंगे

संदल की खुश्बू का डेरा है अब तेरी जुल्फों में

गर बैठी जूडे में तेरे तितली के पर महकेंगे

ऐ हमराही जिन रास्तों से गुजरोगे तुम साथ मेरे

उन रास्तों के मौसम तो क्या, कंकड़, पत्थर महकेंगे

तुम रूठो तो फिर रूठेंगे झोंकें मस्त हवाओं के

तुम को छू कर आने वाले किसको छू कर महकेंगे

ख़्वाबों की इन देहलीज़ों पर आँखें दीप जलाती हैं

कब नींदों की बस्ती में फिर सपनो के घर महकेंगे

इक दिन तू बिछ्डेगा लेकिन मुझको ये लगता है 'हयात'

बरसों तक ये मेज़ ये कुर्सी, तकिया, चादर महकेंगे
* * *
* * *
बहारों के सभी खुशरंग मंज़र छोड़ आया हूँ
मैं अपने गाँव खुशिया भरा घर छोड़ आया हूँ

किया करते थे जिसकी छांव में पहरों तलक बातें

नदी के पार वो तन्हा सनोबर छोड़ आया हूँ

तुम्हारी राह से उठकर चला आया हूँ मैं लेकिन

वो रास्ता देखती आँखे वहीं पर छोड़ आया हूँ

मैं उस घर से उठा लाया हूँ सब यादें लड़कपन की

मगर मेहराब में बैठे कबूतर छोड़ आया हूँ

रिझाते हो मुझे तुम क्या दिखा कर प्यार के सपने

कहीं पीछे मैं चाहत का समन्दर छोड़ आया हूँ

अभी नादान है कैसे सम्भालेगा खुदा जाने

मैं इक दस्त-ए-हिनाई में मुकददर छोड़ आया हूँ

सफर में मुद्दतों से हूँ अभी भी दूर है मंज़िल

मैं पीछे अनगिनत मीलों के पत्थर छोड़ आया हूँ

'हयात' उसकी मुहब्बत के सभी तोहफे बहा आया

मैं इक तूफ़ान दरिया में जगा कर छोड़ आया हूँ
* * *
* * *
अपने पराये
सोचता हूँ तो याद आते है
वो दिन जब ख्वाब भी हकीकत बन गये थे जैसे
इज्ज़त, दौलत, शोहरत और बेशुमार महोबत भी
पर सबसे बढ़ कर अपनों का साथ
कितना अच्छा होता है ये अहेसास
जब हम अपने गिर्द महेसूस करते है
अपनों की महोब्बत और ख़ुलूस को….
मैं खुश किस्मत हूँ के मैंने महेसूस किया
मगर
ज़िन्दगी इतनी आसाँ नहीं है
ज़िन्दगी यश चोपरा की फिल्म जैसी नहीं है
जहा आख़िरी वक़्त में सब अच्छा हो जाता है…
इज्ज़त, दौलत, शोहरत और महोबत
कितना मुकम्मल लगता है ??
सिर्फ एक लफ्ज़ दौलत हटा दीजिये
फिर देखिये ज़िंदगी कितनी बेरहम हो सकती है
आज भी मैं देखता हु अपने उन अज़ीजों को
दूर खड़े हुए उल्जे लिबासो में
चहेरों पे ताज़गी और आँखों में चमक लिए
होंठों पे एक मुकम्मल मुस्कान सजाये
सब के सब जाने पहेचाने से लगते है…
मगर अपना कोई  नहीं लगता … 
* * *
* * *
मैं तेरी साँसों को अपनी सांसो से मेहकादूंगा
तुम फूलों सी हंसती रेहना मैं भंवरा बन जाऊंगा

उल्जे-उल्जे बिस्तर पर फिर रात की काली चादर में
उम्मीदों का सागर लेकर दो नैनों की गागर में
तुम नींदों की सेज सजाना मैं सपनो में आऊंगा 
तुम फूलों सी हंसती रेहना मैं भंवरा बन जाऊंगा

कब से तकता हूँ मैं तुम को जाने कब से बेकल हूँ
तुम तो हो अंन बरसी बदरी मैं इक प्यासा मरुथल हूँ
जाने कब तुम बरसोगी मैं अपनी प्यास बुझाऊंगा
तुम फूलों सी हंसती रेहना मैं भंवरा बन जाऊंगा

मेरी ग़ज़लें, मेरी नज़्में, मेरे गीत अधूरे हैं
सोयी है पैरों में पायल सुर संगीत अधूरे है
इठलाती तुम चल कर आना जब मैं गीत सुनाऊंगा
तुम फूलों सी हंसती रेहना मैं भंवरा बन जाऊंगा

धीरे धीरे बाँध के मुझको चुपके चुपके चोरी से
खींच रही हो किन रास्तों पर तुम सपनो की डोरी से
नैनो के इन गलियारों में लगता है खो जाऊँगा
तुम फूलों सी हंसती रेहना मैं भंवरा बन जाऊंगा

रजनी गंधा महक रही है कब से घर के आँगन में
जीवन साथी तुम भी महेको आओ मेरे जीवन में
इंद्र धनुष के रंग चुरा के सूनी मांग सजाऊंगा
तुम फूलों सी हंसती रेहना मैं भंवरा बन जाऊंगा
* * *
शमीम हयात साहब का  फेसबुक लिंक 
Shameem Hayat

* * *

Thursday 19 September 2013

किताबें बोलती हैं - 7

सितारे टूटते है - इरफ़ाना अज़ीज़ 

इरफाना अज़ीज़ की ग़ज़लें और नज्में 

( संपादक - सुरेश कुमार )


          पाकिस्तान अपने शायरों और उनकी शायरी पर ठीक ही गर्व करता है ! उर्दू उनकी मादरी जुबान है और शायद इसीलिये पाकिस्तान की शायरी और गज़लें अपनी अलग पहचान और खुशबू लिए है !यह कहना भी गलत नहीं होगा कि पाकिस्तान की शायरी जितनी वहाँ मकबूल है उतनी भारतवर्ष में भी लोकप्रिय है ! आज फैज़, फ़राज़, नदीम कासमी, कतील शिफाई, परवीन की गज़लें अपनी उत्कृष्टता के कारण भारत के ग़ज़ल प्रेमियों की जुबान पर है ! हमारे प्रसिध्ध गायकों ने भी उन्हें गाया है और फिल्मों में इनका उपयोग किया गया है !
          इस लिस्ट में एक और शायरा का नाम है - इरफ़ाना अज़ीज़ ! आज हम भी इसी शायरा की किताब सितारे टूटते है का जिक्र करेंगे !

अजीब बात है कि अक्सर तलाश करता था
वो    बेवफाई   के   पहलू    मिरी   वफ़ा  में
* * *
उस एक लम्हे से मैं आज भी हूँ ख़ौफ़ज़दा
कि मेरे घर को  कहीं मेरी बददुआ न लगे
* * *
- - - - - - - - - - - - - - - - 
शाखों  पे  ज़ख्म,   फूल  सदाओं पे आये है
वो रंग शहर-ए-गुल की फ़जाओं पे आये है
शहर-ए-गुल - फूलों का नगर )

वो  सुर्खरू   है  सरमद-ओ-मंसूर  की  तरह 

इल्ज़ाम     सारे     मेरी  वफ़ाओं पे आये हैं 

शायद निशस्त-ए-दर्द से वाक़िफ़ थे नेशतर

क्या रंग अब के दिल की क़बाओं पे आये हैं
निशस्त-ए-दर्द  - पीडा की गोष्ठी )

फिर जैसे हों दिलों  के  तआकुब में फासलें 

फिर   दिन   बुरे  हमारी  दुआओं पे आये है 
तआकुब  - पिछा करना )

खुश्बू की तरह गोशो-ए-ज़िन्दां में ऐ  सबा 

पैगाम    किसके   नाम  हवाओं पे आये हैं 
गोशो-ए-ज़िन्दां - कारागार का एकांत )
* * *
           इरफ़ाना अज़ीज़ का समकालीन उर्दू शायरी में उल्लेखनीय योगदान है ! इरफ़ाना अज़ीज़ की शायरी का कैनवास काफ़ी विस्तृत है !उनकी ग़ज़लों और नज्मों का विषय सिर्फ उनके अपने देश पाकिस्तान की समस्या तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इरफ़ाना अज़ीज़ की शायरी तमाम समस्याओ से ऊपर उठ कर सारी मानव जाती के कल्याण का ख़्वाब देखती हैं !
* * *
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ईंन्सां के साथ  रिश्ता-ए-ईंन्सां अगर रहे
दुश्वार  ज़िन्दगी  का  कोई मरहला नहीं
* * *
शिकस्त-ए-मौज* नज़र आयी नाखुदा की तरह
समन्दरों   से   बहुत   दूर   जब   किनारे  गए
( * आनंद की रुतु की त्रुष्णा )
* * *
किसे है फ़िक्र-ए-सुखन*, जुस्तजू-ए-हर्फ़** किसे
ज़माना  गुज़रा  हमें  अपने  नुक्ताची*** से मिले
(* काव्य की चिंता,**शब्दों की खोज, ***आलोचक )
* * *
          किसी भी भाषा के साहीत्य में महोब्बत गीत-गज़ल-काव्यो का प्रमुख विषय रहा है ! इरफ़ाना अज़ीज़ तो कभी मुहोब्बत में ज़ख्म खा कर अपना दर्द छुपाना चाहती है साथ-साथ मुहोब्बत में एसे ज़ख्म खाना चाहती है जिससे दिल उनकी तमन्ना, आरजू न करे ! और साथ ही महोब्बत में कुछ हिदायत भी देती है ! और अपनी आशा - अभिलाषा पूरी न होने की वजहा भी बताती है की ज़िन्दगी के गम उसे कितने रास आ गये है ! अपने प्रिय को देखने के बाद उसकी अनुपस्थिती में जो मन:स्थिती होती है इरफ़ाना अज़ीज़ उसका बेहतरीन चित्रण किया है !

जब  तुझे  याद  किया  रंग  बदन का निखरा
जब तिरा नाम लिया कोई महक-सी बिखरी
* * *
शिकस्त-ए-जिस्म-ओ-नज़र* का उसे पता न लगे
कि   ज़ख्म-ज़ख्म   बदन   हो  मगर  हवा न लगे 
( शरीर और द्रष्टि की हार )
वहाँ  तो  जो  भी  गया   लौट   कर  नहीं   आया
मुसाफ़िरों    को   तेरे  शहर   की  हवा  न  लगे 
* * *
समेट लूंगी मैं सब फासले सराबों के
समन्दरों के इवज़ तश्नगी मुझे दे दे
* * * 
लगाओ दिल पे कोइ ऐसा ज़ख्म-ए-कारी* भी
दिल  भूल  जाये   ये   आरजू   तुम्हारी   भी
( * भरपूर घाव )
मोहब्बतों  से  शनासा  खुदा  तुम्हें  न करे
कि तुमने देखी नहीं दिल  की बेक़रारी भी
* * *
मर्ग-ए-आरजू पर अब दिल लहू नहीं रोता
रास आ गये दिल को ज़िन्दगी के ग़म जैसे
* * *
          फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने कभी उनके बारे में खा था - " इरफ़ाना अज़ीज़ हर ऐतबार से हमारे जदीद शुअरा की सफ़-ए-अव्वल में जगह पाने की मुस्तहक है ! "और आज इरफ़ाना अज़ीज़ अपनी एक अलग पहेचान बना कर उन शायरों की पंक्ती में खड़ी है जिसका नाम बड़ी इज्ज़त से लिया जाता है !
          इस किताब में 44 गज़लें और 43 नज़्में है! यानी ग़ज़लों-नज़्मों का खजाना ! इस किताब को पाने के लिए आप नीचे दिए गये लिंक पर क्लिक करे, किताब से जुड़ी सारी जानकारी आपको मिल जाएगी !
* * * 
          जाते-जाते कुछ और गज़लें और एक छोटी नज़्म उम्मीद है आपको पसंद आयें --

इक  कयामत-सी बपा करती है
ज़िन्दगी  किससे वफ़ा करती है

टूट   जाते   हैं  दिलों   के  रिश्ते
ज़ुल्म वो रस्म-ए-वफ़ा करती है

रु-ब-रु  आज  बता  दे  ऐ दोस्त
बात  जो  तुझको खफ़ा करती है
* * *
छाँव थी जिसकी रहगुज़र की तरफ
उठ  गये  पाँव  उस शजर की तरफ 

चल   रही   हूँ  समन्दरों   पर    मैं
यूं  कदम  उठ गये हैं घर की तरफ 

कोई बतलाए, दश्त-ए-हिजराँ से
राह जाती है किस नगर की तरफ
* * *
जलवागाहो  में  लौट आयेगा
वो  निगाहों  में  लौट आयेगा

जो है मेहनतकशों का दीवाना
कारगाहों     में   लौट आयेगा

जो  गया  तिरी  ख़ुशी  के लिए
ग़म  की राहों में  लौट आयेगा

जिस की सांसे बुझा रही है हवा
तेरी   आहों  में  लौट आयेगा
* * *
खुशबू  (नज़्म )
------
आबशारो* की थकन से पहले 
चाँदनी रात में गूँजी थी सदा-ए-जानां
और चैरी के शिगूफ़ों * के t तले **
बर्ग-ए-ताजा  से जो उतरी थी सर-ए-राहगुजर
सुर्खी-ए-लब में अभी तक है वो खुशबू लरजाँ
(*झरनों ) (**कलियों )
* * *
कोइ गलती रही हो माफी चाहता हूँ-

Saturday 14 September 2013

क़मर इक़बाल की गज़लें


क़मर इक़बाल 

हर ख़ुशी  मक़बरों पे लिख दी है 
और  उदासी  घरों पे लिख दी है

एक आयत सी दस्त-ए-कुदरत ने
तितलियों के परों पे लिख दी है 

जालियों को तराश कर किस ने
हर दुआ पत्थरों पे लिख दी है 

लोग यूं सर छुपाए फिरते है
जैसे क़ीमत सरों पे लिख दी है

हर वरक़ पर है कितने रंग ' क़मर '
हर ग़ज़ल मंजरों पे लिख दी है
* * *
जीना है सब के साथ कि इंसान मैं भी हूँ
चेहरे बदल बदल के परेशान मैं भी हूँ

झोंका हवा का चुपके से कानों में कह गया
इक काँपते दिए का निगहबान मैं भी हूँ

इंकार अब तुझे भी है मेरी शनाख्त से
लेकिन न भूल ये तेरी पहचान मैं भी हूँ

आँखों में मंज़रों को जब आबाद कर लिया
दिल ने किया ये तंज़ कि वीरान मैं भी हूँ

अपने सिवा किसी से नहीं दुश्मनी ' क़मर '
हर लम्हा ख़ुद से दस्त ओ गरेबान मैं भी हूँ
* * *
ख़ुद की खातिर न ज़माने के लिए ज़िंदा हूँ
कर्ज़ मिट्टी का चुकाने  के लिए ज़िंदा हूँ

किस को फ़ुर्सत जो मिरी बात सुने ज़ख्म गिने
ख़ाक हूँ ख़ाक उड़ाने  के लिए ज़िंदा हूँ

लोग जीने के ग़रज-मंद बहुत है लेकिन
मैं मसीहा को बचाने  के लिए ज़िंदा हूँ

रूह आवारा न भटके ये किसी की ख़ातिर
सरे रिश्तों को भुलाने  के लिए ज़िंदा हूँ

ख़्वाब टूटे हुए रूठे हुए लम्हे वो 'क़मर'
बोझ कितने ही उठाने  के लिए ज़िंदा हूँ
* * *

Saturday 17 August 2013

किताबें बोलती हैं - 6

मेरा मिट्टी है सरमाया - दिनेश मंज़र


                          - दिनेश मंज़र की गज़लें 

शोर  में  क्या  कहा, सुना  जाए
आज   ख़ामोश   ही  रहा  जाए 

मेरे   हिस्से  की  ख़ुशनुमा नींदें
कौन  हँस-हँस  के छिनता जाए 

भीड़   के   आसपास  हैं  पत्थर
अपना  चेहरा  बचा  लिया जाए

काश ! सपनों को पंख लग जाएँ
आज   की  रात  बस  उड़ा  जाए

          20 जूलाई को मैं देर रात तक़ अपने निजी मुक़द्दमें की फ़िक्र में सो नहीं पाया था ! 4 बजे तक मुझे याद है की मुझे नींद नहीं आई थी ! सुब्ह जल्दी जागने की जरुरत भी नहीं थी, 21 को 11-30 को फोन की रिंग बजी, हल्लो कहा - आवाज आई " आपका पोस्ट का पता दो मै किताब भेजता हूँ मुहतरम अनवारे इस्लाम साहब ने कहा है ! "
          7 अगस्त को डाक से दो किताब मिली ! शायर है दिनेश मंज़र - मेरा मिट्टी है सरमाया ! फोन भी शायर दिनेश मंज़र साहब का ही था ! किताब के पन्ने इधर उधर किये पढ़ हैरान हो गया ! और एक बार पढ़ना शरु किया तो ख़त्म ही कर के छोड़ा ! 3 बार पढ़ चूका हूँ इस किताब को !

मेरी  पूजा  है  किसी  तोतले  बच्चे  जैसी
बोलना मुझको भी अच्छे से सिखाये कोई
* * *
दुख का कोई  साथ न दे
सुख  के  दावेदार बहुत
* * *
एक मेला है यूँ तो अपनों का
चंद  रिश्ते  ही  ख़ास  होते है
* * *
बोलती हैं हर तरफ ख़ामोशियाँ
जब  से  हम  तेरे हवाले हो गये
* * *
बता दो पत्थरों ! सारे नगर को
मैं इक ख़ुश्बू का पैकर ढूंढता हूँ
* * *

          दिनेश मंज़र साहब का मूल नाम दिनेश कुमार सोनी है ! साहब ने राजनीति शास्त्र में स्नातक दिल्ली विश्वविधालय से किया है ! दिनेश मंज़र साहब सहायक लेखा अधिकारी, भारत सरकार,वर्तमान में विदेश मंत्रालय में नियुक्त है ! दिनेश मंज़र साहब के काव्य-गुरु श्री आचार्य सारथी रूमी जी है !
          ग़ज़ल संकलन मेरा मिट्टी है सरमाया में लगभग सौ गज़लें है ! आज के दौर में किसी भी कवि-शायर में सामाजिक और राजनीति की समझ और हालात का लेखा-जोखा करने का हूनर बहुत जरुरी है, जो दिनेश मंज़रजी को सहज प्राप्त हो गया है ! वो जो भी बात करते है बड़ी आसानी से आसान आल्फाज़ों में कह देते है ! कुछ अशआर -

जिनकी झूठी बात भी सच्ची लगती थी
वो   मेरे  सच  को  झुठलाये  फिरते  है
* * *
मैं तो मुन्सिफ़ हूँ, जमाने की नज़र में लेकिन
फ़र्के-इन्साफ़   को  सूली   पे   चढ़ाऊँ   कैसे ?
* * *
आम  लोगों की बेबसी छलकी
आपकी ख़ास - ख़ास शामों में
* * *
तन्ज़ की भाषा में मुझसे गुफ़्तगू करते हैं सब
क्या मेरा अस्तित्व है बस तन्ज़ करने के लिए
* * *
काँपता है ज़मीर क्यूँ मेरा
चंद जलते हुए सवालों से
* * *
मैंने अपने ख़ून से गुलशन सिचां था
तेरे ज़िम्मे  क्यूँ   इसकी रखवाली है
* * *

          दिनेश मंज़र साहब का यें पहला ही ग़ज़ल संग्रह है फिर भी ग़ज़लों के हर एक शे'र कुछ नयेपन से सामने आते है ! जितने सुकून से पढ़ेंगें उतना ही गहेराई में ले जायेगा ! हिन्दी-उर्दू ग़ज़ल पर बात करते समय एक बात स्पस्टता से मानी जा सकती है की समानता की दृष्टी से दोनों भाषाएँ नजदीक है ! ग़ज़ल कहेते वक़्त हिन्दी में उर्दू की मिठास और उर्दू में हिन्दी की शब्दावली का स्वाभाविक रूप से सम्मिश्रण देखा जा सकता है ! मंज़र साहब की ग़ज़लों में दोनों भाषा का प्रभाव है !मुझे यकीं है एक दिन दोनों भाषा के लोग मंज़र साहब पर फक्र करेंगे !लिजियें एक ख़ुबसूरत ग़ज़ल -
ज़िन्दगानी   की   हसीं   शाम अभी बाक़ी है
वक़्त    का     रेशमी   पैग़ाम अभी बाक़ी है

तेरे हिस्से  में तो  फ़ुरसत है ज़माने भर की
मेरे  हिस्से   का  बहुत  काम अभी बाक़ी है

ज़िन्दगी !  पेश क्यूँ आती है  परायों  जैसी
मेरे   होठों   पे   तेरा   नाम   अभी बाक़ी है

मेरी पलकों में छुपी प्यास अभी तक है जवाँ
तेरी   आँखों   का   हसीं  जाम अभी बाक़ी है

तेरे  एहसास  का  'मंज़र'  है   भले  लासानी 
मेरे   ज़ज्बात   का   अन्जाम अभी बाक़ी है
* * *
          दिनेश मंज़र आज के दौर के शायर है वो लाचारी यां मायूसी भरी बाते कम, और उमीद से भरी बातें ही  ज्यादा करते है ! आने वाले कल की एक तस्वीर भी उसकी नजर में है ! साथ ही आज के दौर में जो भी देखा है ग़ज़ल के माध्यम से साफ-साफ लफ़्ज़ों में मुँह पर कह दिया हैं !

मत  पूछिये कि कौन-से मंज़र नज़र में है
टूटे   तमाम  आइने  आँखों   के  घर में है

भूखे  किसी  ग़रीब  का  चर्चा  नहीं  कहीं
ऊँचे घरों के  भोज  भी  देखो  ख़बर में है

हम ख़ुद करेंगे एक दिन ज़ुल्मों का फ़ैसला
जो  कर  रहे  है  ज़ुल्म  हमारी नज़र में है

मैं सोचता  था  ज़िन्दगी आसान  हो  गई
धब्बे  लहू  के  कैसे   मेरी  रहगुज़र में है
* * *
          मंज़र साहब की आँखें आने वाले सुनहरे कल को देखते है ! वर्तमान चाहे जैसा रहा हो वो उम्मीद का दिया जलाये हुयें है ! हौसला और हिम्मत भी देते है !

अगली रुत में शायद मुझको प्यार मिले
ये  मौसम  तो  गम से रिश्ता जोड़ गया
* * *
जब भी देती हैं ठोकरें राहें
मैं और तेज़ दौड़ पड़ता हूँ
* * *
फलक़ से चाँद चुराने की रात आई है
सितारे तोड़ के लाने की रात आई है
* * *
कोई  मेरे  साथ  नहीं  था
पर, मैनें कब हिम्मत हारी?
* * *

          इस किताब से शे'र यां ग़ज़ल चून कर रखना बड़ा मुश्किल काम है ! कितने शे'र ब्लॉग पर रखूँगा !!! फिर भी इस दौर के सियासी माहोल और हालत पर थोड़े शे'र -

अब असली सिक़्क़े हैं ख़ुद पर शर्मिन्दा
नकली सिक्कों ने वो जगह  बना ली है
* * *
सोने के सिक्कों, चाँदी के चम्मच का
क्या लेना, देना  मजदूर, किसानों से

देख  रहे  हैं  'मंज़र'  ख़ूब  तबाही  के
आज के राजा, रानी रोज विमानों से
* * *
          आने वाले वक़्त में दिनेश मंज़र साहब से हमारी उम्मीदे बहुत बढ़ गई है ! भविष्य में जो कुछ भी लिखेंगे वह अधिक परिपक्व, प्रभावशाली और जिंदगी की सच्चाई को पूरी शिद्दत से बयान करेगा ! मैं चाहता हूँ जल्दी एक और किताब का गुलदस्ता हमारे हाथ में दे !

          इस किताब को पाने के लिए ज्यादा तकलीफ नहीं उठानी पड़ेगी आपको -
प्रकाशक   :  आशीष प्रकाशन 
                                    100, देवीमूर्ति कॉलोनि, पानीपत
                        फोन : 09650033037
                     मूल्य : 200/- रुपये 

          दिनेश मंज़र साहब से पूछ कर भी इस अनमोल किताब को पाया जा सकता है ! दिनेश मंज़र साहब को मिलने का फेसबुक लिंक ( Dinesh Soni Manzar ) ! दिनेश मंज़र साहब का फोन नं. 09968898788 है ! आपको ग़ज़लें पसंद आई हो तो मुबारक बाद, बधाई जरुर देना ! जाते जाते दो गज़लों के साथ आलविदा ! कहीं गलती रही हो माफी चाहूँगा !

तू   जो मुझको जबान दे देता
तेरी  ख़ातिर   मैं जान दे देता

मौत से  डर गया था मैं वर्ना
तेरे  हक़  में   बयान दे देता

प्यार की इन्तहा से यूँ गुज़रा
एक  पल  में ये जान दे देता

आदमी  हूँ, ज़मीन  है  मेरी
तू   भले   आसमान दे देता

यार ! 'मंज़र' बदल गया वर्ना
मैं   तुझे   ये  जहान दे देता
* * *
* * *
प्यार के साथ प्यार की बातें
जैसे      रंगो-बहार की बातें

ज़िन्दगी  भर हमें लगी झूठी
ज़िन्दगी  के  क़रार की बातें

कौन जाने कि कैसे आम हुई
राज़   की  राज़दार की बातें

आदमी वक़्त का गुलाम रहा
कौन  करता है हार की बातें

आज मंज़र लगीं उसे प्यारी
बाद  मुद्दत के यार की बातें