सरहद के आरपार की शायरी अज़हर फ़राग़ और अहमद कमाल परवाज़ी
संकलन - तुफ़ैल चतुर्वेदी
कोई किताब अपनी बाहर की डिज़ाइन से बेस्ट नहीं बनती । किताब बनती है अंदर के डिज़ाइन से। शाहिद बिलालने एक बार कहा था "शाइरी पूरा इंसान मांगती है"। और ऐसे ही पूरे शाइर है अज़हर फ़राग़। शाइरी भी एक तरह का सॉफ्टवेयर है, जिसे वक़्त वक़्त पे अपडेट करनी पड़ती है । जो अपडेट नहीं हुआ वो गुमनाम हो जाता है। जो आदमी पूरा शाइरी का है इसका हर पल शाइरी से जुड़ा रहता है। हर मिसरा, हर ग़ज़ल, नज़्म का, हर नुक़्ते का ही हो के रह जाता है। उसके इर्द गिर्द - हर स्मत सिर्फ़ शायरी ही घूमती रहती है। और ऐसे ही शायर की किताब रीनाजी ने भेजी है। अज़हर फ़राग़ की।
2012/13 का वक़्त था। मेहशर भाईने एक whatsapp ग्रुप बनाया था। गुजरात से मैं और हिरेन भाई उस ग्रुप का हिस्सा थे। ऐसा कोई शाइर नहीं था जो उस का हिस्सा नहीं था। सबसे बेहतरीन। सरहद पार से बहुत शाइरों के नाम सुने थे, सिर्फ़ नाम। लेकिन उस शायरी तक नहीं पहुंचा जा सकता था। अगर ये दूरी कम हुई तो मेहशरभाई की बदौलत। इसी ग्रुप के कारन थोड़ी बहुत उर्दू सीख गया । एक दिन मेहशर भाई को कहा कि अज़हर फ़राग़ को add करो। फ़ौरन कर दिया। उस वक़्त से आज तक उसका पीछा करता रहता हूँ अज़हर फ़राग़ का।
बहुत सी किताबों से गुज़रता हूँ रीनाजी की बदौलत। कुछ किताबें दो शे'र की होती है, तो कुछ दो मिसरों की। बहुत कम होता है कि किताब के हर लफ़्ज़ से महोब्बत हो जाए । शे'र को सदियों का सफ़र तै करना होता है। ए कोई ब्रेकिंग न्यूज़ नहीं जो आई और चली गई। यूँ तो एक ही शे'र काफ़ी होता है शाइर को अमर करने के लिए। बहुत कम शाइर होते है जिसे ए मौका मिलता है। फ़राग़ ने तो बहुत सी ग़ज़लें और नज़्में दी है। जिसे भुलाया नहीं जा सकता। शायद मेरी इक तरफ़ा महोब्बत भी कह सकते हो। ( ए ज़रूरी नहीं मुझे पसंद आए सबको पसंद आए)
फ़राग़ का शे'र कहने का अंदाज़ मुझे बहुत पसंद है। बहुत से दोस्त मुझसे सवाल करते है कि आप शाइर होते तो किस तरह का लहज़ा रखते/अगर मैं शाइर होता तो मुशायरे में कैसे शे'र पढ़ता। मैं तीन/चार नाम लेता ही हूँ कि मैं अज़हर फ़राग़, ज़ुबैर अली ताबिश या मिलिंद गढवी की तरह ही पढ़ता। हालांकि मैं शाइर होता तो अपना ही अलग लहज़ा होता, पर नहीं हूं तो मैं अपने आप को इसी दोस्तों में ढूंढता हूँ। और मैं बहुत ख़ुश हूँ कि शाइर नहीं हूँ। ए वो दौर है जिसमें कहने वाले तो है सुनने वाले नहीं है। जौन ने कहा भी है " जिसे पढ़ना चाहिए वो लिखने लगे है "। जंगल में शे'र कम है शिकारी ज़्यादा। यहीं हाल शाइरी में भी है। ज़दीद शाइरी के नाम पर झटका शाइरी आ रहे है। फ्रिज में पेड़ उगने वाली बेतरतीब, बिना सिर पैर की बातें ग़ज़लों में ठोंसी जा रही है। मुशायरे में सुनने के बा'द लगता है क्या बात है। पर घर पहुंचते ही उसी शे'र पर कहने का मन होता है कि कहा दाद दे के आये!!!?
ए किताब एसी ही निकली जैसी मैंने उम्मीद की थी। हर एक शे'र सोचने पर मजबूर कर देता है। वर्ना अब के हालात ये है शादी के दावत कार्ड की तरह किताबे आती है और फ़ेंक दी जाती है। ज़ियादा कुछ नहीं कहूंगा। हो सके जरूर ख़रीदे। वर्ना एसा वक़्त आएगा कि कोई शाइरी की किताब नहीं आएगी। गुजरात में तो वो हाल है कि किताब के टाइटल पर कुछ शाइर जो उसके दोस्त होते है उसे फोन पर कहा जाता है कि आप दोस्त मेरी किताब के टाइटल को लेकर आप कोई कविता लिखे, हैरत की बात ए है बहुत लिखते भी है और उसे भी ऑन ध स्पॉट छाप दिया जाता है। और ऐसे लोगो को मैंने कभी शाइर नहीं माना न तो मानूँगा। चाहे नतीजा कुछ हो। मेरे पास अब खोने को कुछ बचा नहीं। अनवर मसूद साहब ने कहा था "literature ये नहीं की क्या लेना है, literature ये है कि क्या छोड़ के जाना है"। अगर पूरा वक़्त दे पाओगें तो आने वाली पीढ़ी याद रखेगी। वर्ना......मुश्ताक़ अहमद युसूफ़ी साहब ने ठीक कहा है "ग़ज़ल ऐसी सिन्फ़े सुख़न है कि इसमें घटिया आदमी भी बढ़िया शेर निकाल सकता है"____
ख़ैर, मुझे बहुत पसंद आई। अज़हर फ़राग़ के कुछ शे'र जो मेरी नज़रों में कम आये और कुछ वहीं रखता हूँ जो पॉपुलर है। जो मेरी या हिरेंभाई की या रीना दीदी की प्रोफाइल में मिल जायँगे। रही बात अहमद कमाल परवाज़ी की तो वो आधा हिस्सा फिर कभी।
सर झटकने से कुछ नहीं होगा
मैं तेरे हाफ़िज़े में रह गया हूँ
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वो दस्तयाब हमें इसलिए नहीं होता
हम इस्तेफ़ादा नहीं देखभाल करते हैं
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हम अगर अबके साल भी न मिले
फिर उधेड़ोगी तुम ये स्वेटर क्या
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इस क़दर भी चाहना क्या चाहना
इश्क़ शिद्द्त से हो और ख़्वाहिश न हो
ऐसी ग़ुरबत को ख़ुदा ग़ारत करे
फूल भिझवाने की गुंजाइश न हो
तुम तो यूँ ज़िद पर उतर आये हो आज
आख़िरी ख़्वाहिश हो फ़रमाइश न हो
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नाम लिखते हैं किसी का लेकिन
दुःख बताते नहीं अशजार को लोग
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बस अपनी ख़ुशनज़री का भरम रखा हुआ है
शिकस्ता आईने तरतीब से लगा रहे है
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अभी किसी की ख़ुशी में शरीक़ होना है
अभी किसी के जनाज़े से होके आ रहे हैं
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कुछ ठहरता नहीं इस टूटे हुए बर्तन में
दिल दुबारा न कहीं चाक पे धरना पड़ जाय
......
इतना मासूम भी नहीं है वो
देने पड़ते हैं उसको झांसे भी
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खुले पिंजरे की सहूलत पे न जा
मिरी ग़फ़लत मिरी दानाई समझ
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रो कर न सोया जाय तो क्या नींद का जवाज़
बिस्तर की हर शिकन में पड़ा जागता हूँ मैं
हूँ अपनी रौशनी की अज़ीयत में मुब्तला
जलता हुआ चराग़ हूँ उल्टा पड़ा हूँ मैं
.....
मख़बिरी थोड़ी कर रहे है तिरी
सिर्फ़ अपनी सज़ा भुगत रहे हैं
पानियों से दुआ-सलाम नहीं
नाव की बददुआ भुगत रहे हैं
रंजिशें और...और हैं लेकिन
एक ही मसअला भुगत रहे हैं
वो भी इक़रार करके फँस गया है
हम भी अपना कहा भुगत रहे हैं
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होते होते होगा वस्ल हमारा पाक तकल्लुफ़ से
पैर अभी मानूस नहीं नहीं है नये-नवेले बूट के साथ
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कोई मुज़ाइक़ा नहीं पीरी के इश्क में
वैसे भी ये सवाब कमाने की उम्र है
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बे तकल्लुफ़ है बहुत मुझसे उदासी मिरी
मुस्कुराऊँ तो पकड़ती है मुझे कॉलर से
......
राज़दार एक कुंआं था अपना
आजकल वो भी छलक पड़ता है
छोटे छोटे से हैं रिश्ते लेकिन
वास्ता क़ब्र तलक पड़ता है
अश्क जैसे मिरा हमसाया हो
वक़्त-बेवक़्त टपक पड़ता है
इसके साये में न रहना मिरे दोस्त
ये शजर बीच सड़क पड़ता है
....
मछलियां साथ कहाँ से लाऊँ
पूरी कश्ती में तो जाल आता है
नीले कर बैठता है अपने होंठ
सुर्ख़ी तालाब में डाल आता है
पीने जाना तो बहुत दूर की बात
मयकदा देख के हाल आता है
बरतरी अपनी जताता है मगर
ले के औरों की मिसाल आता है
......
ज़रा-सा मुख़्तलिफ़ रंगे-रफ़ू है
मगर चश्मे-अदू, चश्मे-अदू है
मुहब्बत के कई मा'नी हैं लेकिन
ज़ियादा सामने का सिर्फ़ तू है
दु'आ भूली हुई होगी किसी को
फ़लक पर इक सितारा फ़ालतू है
कहीं भी रख के आ जाता हूँ ख़ुद को
न जाने किस को मिरी जुस्तजू है
ख़ुदा सुनता है जैसे बेज़बां की
नमाज़ उस की भी है जो बेवज़ू है
दरारें, ताक़, रौज़न हो कि खिड़की
शजर पर घोंसले की आबरू है
.......
आँखों के अंबार लगे हैं नीम खुले दरवाज़ों में
जैसे गाँव की गलियों से बारात गुज़रने वाली है
धीरे धीरे तान रहे हैं हम भी कम्बल चेहरे पर
टीवी की आवाज़ को वो भी मद्धम करने वाली है
....
एक होने की क़स्में खाई जाएँ
और आख़िर में कुछ दिया लिया जाए
....
उसे कहो जो बूलाता है गहरे पानी में
किनारे से बंधी क़श्ती का मअसला समझे
...
कभी कभी आती थी पहले वस्ल की लज़्ज़त अंदर तक
बारिश तिरछी पड़ती थी तो कमरा गीला होता था
.....
दफ्तर से मिल नही रही छुट्टी वगर ना मैं
बारिश की एक बूँद ना बेकार जाने देता
......
ये जो रहते हैं बहुत मौज में शब भर हम लोग
सुब्ह होते ही किनारे पे पड़े होते हैं
....
बता रहा है झटकना तिरी कलाई का
ज़रा भी रंज नहीं है तुझे जुदाई का
....
मैं जानता हूँ मुझे मुझ से माँगने वाले
पराई चीज़ का जो लोग हाल करते हैं
.....
सुब्ह दम सुर्ख़ उजाला है खुले पानी में
चाँद की लाश कहीं से भी उभर सकती है
...
यानी अब भी सादा दिल हूँ अंदर से
अच्छा चेहरा देख के धोका खाता हूँ
......
वो जो इक शख़्स मुझे ताना ये जाँ देता है
मरने लगता हूँ तो मरने भी कहाँ देता है
तेरी शर्तों पे ही करना है अगर तुझ को क़ुबूल
ये सुहुलत तो मुझे सारा जहाँ देता है
....
कोई भी शक़्ल मेरे दिलमे उतर सकती है
इक रफ़ाक़त में कहाँ उम्र गुजर सकती है
...
कोई सिलसिला नहीं जावेदां तेरे साथ भी तेरे बा'द भी
मैं तो हर तरह से हूँ राईगां तेरे साथ भी तेरे बा'द भी
न तेरा विसाल विसाल था न तेरी जुदाई जुदाई है
वही हालत ए दिल ए बदगुमां तेरे साथ भी तेरे बा'द भी
÷ अज़हर फ़राग़
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