Sunday 8 April 2018

किताबें बोलती है - 9

तन्हाइयों का रक़्स : सिया सचदेव

समीक्षा डॉ. राहुल अवस्थी



एक अना अब भी ज़िन्दा है..


         बड़ी बेअदब है अदब की दुनिया : पता ही न चले कब कौन गिरह लगा गया। हाल-फ़िलहाल हालत और हालात ये कि जो जितना बेअदब, वो उतना बड़ा अदीब.. और फिर व्हाट्सअप-फ़ेसबुक का दौर - जितने नामों में शायर-कवि बतौर उपसर्ग मिले, उनमें से प्रायः शत-प्रतिशत को इसके अलावा सब जानना। चेहरा ही नहीं कहीं - मुखौटे ही मुखौटे, मुखौटों पर मुखौटे! प्याज के वल्कों की तरह : जितना उतारते चले जाओ, बसाते और अँसुआते चले जाओगे। ऐसे में कोई नूरानी रूह अपने चिर चेहरे में चली आये तो उसको सिया सचदेव समझ लेना।



         सिया सचदेव को सियासत वाले समझने से रहे। सिया के सत् को समझने वालों को ही उन्हें समझने का अधिकार है। उनके होने की गवाही उनकी शफ़्फ़ाक़ और प्रशान्त पाक़ीज़गी है। उर्दू की शायरी में वे हिन्दी की महादेवी वर्मा हैं। मुझे माफ़ न किया जाये मेरे ये कहते हुए कि कवयित्रियाँ कहलाने वाली अधिकतर औरतें फ़ेक हैं। मेकअप से लेकर पैकअप तक ही इनकी गति है, बाक़ी का काम तो रेस्पॉन्सर और स्पॉन्सर ही कर रहे हैं। ये सब प्रस्तोतियाँ हैं : लिसलिसे लास्य के लबादे में लिपटी आत्मिकतः अभद्र अदाकाराएँ - अपने-अपने स्वार्थों के वशीभूत निर्देशकों के इशारों पर नाचती-गाती-इठलाती हुई हाँड़-मांस की अभिशप्त कठपुतलियाँ। इस विडम्बनापूर्ण विषम समय में भी जिसने स्टेज से अधिक मेज़ को अपनी लेखनीय प्राथमिकता रखा, उस सिया सचदेव का अन्तस् से अभिनन्दन भी हम खुलकर न कर सकें तो निश्चयतः निहायत कायर हैं हम।



         उनका कहन कुछ ऐसा है कि मैं मर-मर जाता हूँ, मर-मर जीता हूँ। वे मेरे साथ दुर्घटित ज़्यादातर घटनाओं की यथासम्भव और प्रायः यथाभाव काव्यानुवादक हैं। बेबस निःशब्द आहें उनकी कविता में क़दम-क़दम कराहती नहीं, समाधिस्थ मिलेंगी। उनकी शायरी के प्रभाव का परिणाम वारुणी के साग़र में निढालना के उपकरण नहीं, करुणा की वरुणा-प्रवाहणा के समीकरण रचता है। न केवल कथन की नवीनता के अन्वेषण में ही उनको दैवी नैपुण्य प्राप्त है प्रत्युत शिल्प पर भी उनका सहज अधिकार है। आज जब कहन और तग़ज़्ज़ुल लफ़्ज़ तक से शायराएँ और अदीबें अपरिचित हैं, तब सियाजी का फ़न-ए-सुखन और फ़न-ए-अरूज़ सुखानुभूति भी कराता है और आश्वस्ति भी प्रदान करता है कि हाँ, अभी महिला रचनाकारों में कुछ नाम तो ऐसे हैं, जिनसे आस बँधी रहेगी - जो शायरी से नहीं, शायरी जिनसे चलती रहेगी और फिर डायरी से चलना अलग बात है और शायरी से चलना अलग बात। आज जब कविता की कलंकिनी लंकिनियाँ मिलते गिनी भी न जा रही हों, टंच माल उड़ाने की जुगत-मति-धृति और व्यवहृति वाली मञ्च-प्रपञ्च की आसुरी सुरसाओं के मध्य सिया सचदेव से भेंटाना अहोभाग्य ही होता है।



         लिप्साओं वाले मूल्य और मूलहीन तथाकथित कविताओं के चालू दौर में मूल्यवत्ता और मौलिकता उनकी सृजनात्मकता का हठ है। सब धान बाईस पसेरी करने वाले व्यापारियों! उनका न अब कुछ हो सकता है और न कोई कुछ कर सकता है क्योंकि ख़ुद उनको वह करना है निरन्तर, जो उनकी आत्मा में उपस्थित परमचेतना की गवाही है, जो उनकी आत्मा का आदेश है। स्टेज की ग्लैम-डॉलें काश! इनसे कुछ सीख सकें तो कविता का कल्याण हो जाये और कवयित्री शब्द का भी। सौ तरह की चटखारेदार बातें भी बननी बन्द हो जायें और चटखारों भरा भोग लगाने वाले भोगी भी मन्द हो जायें। सर्वाधिक भला उन सम्भावनाशील ओरिजिनल प्रतिभाओं का होगा, जो अपनी मौलिकता लिये साहित्य के सहारे स्टेज पर आने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही हैं। इस पुस्तक को पढ़कर कइयों को यह समझ भी आना चाहिए कि आधा होंठ दाँतों से दबाते-चबाते सीत्कार करती मञ्चीय महिलाओं की निहायत सस्ती और कामोत्तेजक कविताएँ कहीं से भी आज की सही ग़ज़ल का प्रतिनिधित्व नहीं करतीं। ऐसी पहचान तो सुना है, अण्टे की कोठे वाली रक्काशाओं की रही है। सिसकार मारने से ही श्रृंगार नहीं हो जाता। काव्यमञ्च तो माँ वाणी का आराधन-अधिष्ठान है और उस पर उपस्थित कवयित्रियाँ वाणी की वरद पुत्रियाँ। यह मञ्च के ठेकेदार उन तथाकथित कवियों को भी ठीक से समझ आना चाहिए, जिन्होंने निहित स्वार्थों की पूर्ति हेतु साज़िशात्मक रणनीतियों से सरलता से सफलता पा जाने की उच्छिष्ट चाह रखने वाले-वालियों के चलते काव्यसमारोहों को असाहित्यिकता और अकविता का ही नहीं, कुत्साओं और कुकवियों का अड्डा बनाकर रख दिया है, जहाँ निर्मल और असल क़लमकारों का आना सख़्त मना है !



         सिया की संकल्पिता और इस पुस्तक की विशेषता को इसी पुस्तक के दो शे'रों से कह देना काफ़ी होगा और सिया के वे दो शे'र कुछ यूँ कि -

वो है आदमी कोई आदमी, जो किसी के काम न आ सके
वो चराग़ भी है चराग़ क्या, सरे रहग़ुज़र जो जला न हो


ऐ ख़ुदा ए पाक की रहमतों कोई ऐसा शे'र अता करो
जो कभी किसी ने सुना न हो जो कभी किसी ने कहा न हो


         ग़ज़ल की चालू परिभाषाओं और आशाओं से अलग हटते हुए स्टेज की आम्रपालियों को अपना भविष्य सुधारने और अपने जीवन में बुद्धत्व की सन्निधि के लिये एक-दो बार इस कृति को क़ायदे से पढ़ना चाहिए। माँ की कृपावशात् शायद उनके अन्तस् में सृजना का उन्मेष, मौलिकता का उद्भास और अलौकिकता का आलोक हो सके। अब ये वक़्त है इस पुस्तक के बहाने दलित विमर्श और नारी विमर्श की तर्ज और तर्ह पर कवयित्री विमर्श का। उसे भी मुक्ति चाहिए ज़लज़लाते जलाते जलते सवालों से, ज़िन्दगी भर के मलालों से, कविता के दलालों से। बहुत तरह चमकने के बाद भी वो कई तरह आज भी बेचारी है। उसकी भी मञ्चीय उम्र फ़िल्मी अदाकाराओं की तरह आज भी कम है। पेशे से कवि नाम वाले साठे पर पाठे बने बुढ़ापे तक डटे रहते हैं और वो तुरत-फुरत चुकता और चलती कर दी जाती है। फ़िल्म इण्डस्ट्री की तरह करोड़ों की कविता इण्डस्ट्री खड़ी हो चुकी है। यहाँ भी वही सब शुरू हो चुका है - चोरी-चकारी, मारामारी, मक्कारी, ग़द्दारी, अय्यारी, पतियाना, हथियाना, लतियाना, ले भागना, छोटी-छोटी माँगना, बड़ी-बड़ी दागना, पीना-पिलाना, नशे के पाउच, कास्टिंग काउच और न जाने क्या-क्या! अब इसके रूल्स और रेगुलेशन्स भी लिखे जाने चाहिए। हालाँकि कवि निरंकुश होता है और उसको बन्धन नहीं बाँधते, वो उन्मुक्त होता है किन्तु इन पुरानी सहज मान्यताओं के कारण उसे उच्छृंखल और अधिनायक होने की अनुमति नहीं दी जा सकती। सम्पूर्ण स्वच्छन्दता सही नहीं, इससे आवश्यक स्थैर्य भी नहीं आता। छन्द है तो जीवन है और जीवन है तो छन्द है; इस सनातन सत्य को समझना होगा। छन्दहीनता व्यक्ति को बिखरा डालती है। शॉर्टकट सफलता पाने का आसान साधन तो हो सकता है किन्तु सच्चा तरीक़ा कभी नहीं हो सकता : अपनी इंसानी सीमाओं में ही असीमित प्रतिभा का अस्तित्व सुरक्षित और सार्थक होता है। समीक्षित इस पुस्तक का सन्देश ही यही है -

हमें ख़ुद से ग़ुज़रना रह गया है 
यही इक काम करना रह गया है

बुलन्दी पर तो देखो आ गये हो
बुलन्दी पर ठहरना रह गया है..

डॉ. राहुल अवस्थी



तन्हाइयों का रक़्स : सिया सचदेव
प्रथम संस्करण - 2017
₹ 200 मात्र
ऐनी बुक, ग़ाज़ियाबाद

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9 comments:

  1. सियाजी समकालीन मौलिक और अपने आप लिखने वाली नगण्य महिला रचनाकारों में हैं

    साधुवाद आपको इस प्रकाशन हेतु

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (10-04-2017) को "छूना है मुझे चाँद को" (चर्चा अंक-2936) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. बहुत लाजवाब समीक्षा ...
    कमाल के शेर कोट किए है यहाँ ...

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  4. सुन्दर परिचय और पुस्तक समीक्षा साझा करने के लिए आभार...अशोक जी

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  5. कृतज्ञभाव धन्यवाद देती हूँ भाई आपने मेरी किताब की समीक्षा को अपने ब्लॉग में जगह दी आपका बेहद शुक्रिया आपका स्नेह ही मेरा सामर्थ्य है. आपके इन उत्साहवर्धक शब्दों का सादर अभिनन्दन खुश रहियें

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