Sunday 22 April 2018

किताबें बोलती है - 10

सुब्ह बख़ैर ज़िन्दगी : अमीर इमाम


अपनी बात : तरकश प्रदीप



इस शाइरी में कुछ नहीं नक़्क़ाद के लिए
दिलदार  चाहिए  कोई   दीवाना  चाहिए

          ऐलानिया तौर पे ये शे'र नाक़िद को आगाह करता है तो मुझ ऐसे 'दीवाना' होने का वहम पाले हुओं को झूमने पर मजबूर ! साफ़ कहूँ तो मेरे नजदीक नक़्क़ाद वो शै है जो 'कुछ नहीं' में भी 'बहुत कुछ' खोज लाने का दम्भ रखती है तो वहीं अपनी मर्ज़ी का 'कुछ-कुछ' अक्खों-परोखे (आँख से ओझल) रखने की आज़ादी का भरपूर इस्तेमाल भी करती है ! नक़्क़ाद न होने के बावजूद ऐसा कुछ-कुछ करने की मंशा मैनें भी पाल ली है सो मैं भी अपनी पसन्द ही की बात करूँगा !

     बात अमीर इमाम के दूसरे शेरी मज्मूए की हो रही है (जो अमेज़न की कृपा से तीसरी बार ऑर्डर करने पर मुझे नसीब हुआ है ) ! ख़ैर... ख़बर ये है कि 'सुब्ह ब-ख़ैर ज़िन्दगी' के अमीर 'ज़िन्दगी' में एक नया रंग भरने के काम को अंजाम देते रँगे हाथ पकड़े गये हैं .. लेकिन ध्यान रहे कि ये काम भी उन्होंने ऐलानिया ही किया है , इस हवाले से इसी किताब का शे'र है ..

सोचती रह जाएगी दुनिया इसे क्या नाम दूं 
ज़िन्दगी तुझ में इक ऐसा रंग भर जाएंगे हम 




            अमीर को इस हिमाक़त की सज़ा मिलनी ही चाहिए और सज़ा ये है कि आपको अमीर इमाम और उसकी शाइरी से मुहब्बत करना होगी. 

              आप अमीर से ज़ाती तौर पर वाक़िफ़ हैं तो इस बात पर मुझ से इत्तेफ़ाक रखेंगे कि तलाश-ए-ज़ात में मुब्तला अमीर ऐन उसी तनाव और तनतनाव के साथ इस मज्मूए में मौजूद हैं जो उनकी अस्ल ज़िन्दगी का हासिल है ! अमीर का आलिम जब जब उसके शाइर से टकराता है तो उस टकराहट की शे'री गूँज क़ारी के ज़हन की वादियों में देर तक हलचल मचाए रखती है! दिबाचे में आप ने अपने मुहब्बती स्वभाव के हक़ में जो दलाइल पेश कीं हैं उनके आगे नाक़िद का शोर नक्कारखाने की तूती भर साबित होता है ! खैर.. मैं नक़्क़ादों 'की' और नक़्क़ादों 'सी' बात क्यूँ करूँ .. बात करूँगा उस शै की, जो मुझे अज़ीज़ है और जिसके अलम-बर-दार अमीर इमाम भी हैं .. यहाँ 'भी' निपात की जगह 'ही' का इस्तेमाल आप करते है तो ये जुमला और वाज़ेह हो जाता है! बात हो रही उस शै की जो इश्क़ के सिवा क्या ही होगी !



             समन्दर के खारे पानी से उभरती किसी सिने-तारिका की मानिंद दुनिया की कुड़त्तण से इश्क़ के उभरने का मंज़र अमीर के यहाँ पाया जाता है, जिसे आप चाह कर भी भूल नहीं पाते .. इ'श्क़-सुर उनकी नग़मगी का प्रधान सुर है .. बक़ौल-ए-अमीर इमाम ..

पास बस एक कहानी है सुनाने के लिए 
उ'म्र भर एक कहानी को सुनाना है मुझे 

          ये कहानी इ'श्क़ की कहानी ही है जिसे अमीर बेसाख़्ता अपनी ज़ुबान में सुनाते हैं.. उनकी अपनी ज़ुबान जो उनकी अपनी ज़बान है ..

मक़तब-ए-इ'श्क़ में ता'लीम हुई है मेरी 
हाँ मुझे चाँद सितारों की ज़बाँ आती है 


ऐसे हैं हम तो कोई हमारी ख़ता नहीं 
लिल्लाह इ'श्क़ है हमें वल्लाह इ'श्क़ है 

जब्बार भी, रहीम भी, क़ह्हार भी वही 
सारे उसी के नाम हैं अल्लाह इ'श्क़ है 

तो कहीं वो कहते हैं ..

बदलते वक़्त से बदला नहीं नज़ारा-ए-इ'श्क़ 
वो आसमान-ए-ख़मोशी वही सितारा-ए-इ'श्क़

हम अहल-ए-इ'श्क़ को आता है हुक्म-ए-इ'श्क़ सदा 
किताब-ए-इ'श्क़ से करते हैं इस्तिख़ारा-ए-इ'श्क़ 

ये अमीर का ज़िम्मेदार आशिक़ ही है जो उनसे कहलवाता है ..

इश्क़ करना ज़िम्मेदारी है नतीजा कुछ भी हो 
सिर्फ़ पूरी अपनी ज़िम्मेदारियाँ करते रहो 

लब्बैक पहले हमने कहा था रसूल-ए-हुस्न 
हो कारज़ार ए इ'श्क़ तो परचम मिले हमें 



             अमीर इमाम की शाइ'री में भरपूर 'कुकनूसियत' भी मौजूद है .. आपके यहाँ जहाँ-तहाँ लगने लगता है कि बस अब 'और नहीं', और फिर इसी 'और नहीं' की कोख से एक उम्मीद पैदा होती है ! जैसा कि अस्ल ज़िन्दगी में होता है, तमाम अप्स एंड डाउन लिए आप का सफ़र बेनियाज़ी से 'चढ़दी कला' का है .. मिसाल के तौर पे ये अशआ'र देख लिए जाएँ..

बेनियाज़ अमीर इमाम कहता है..  

माना पड़ी हैं और भी लाशें, पड़ी रहें 
हम तो बस अपनी लाश उठाने को आए हैं 

दावा नहीं के लाएंगे नद्दी निकाल कर 
सहरा में सिर्फ ख़ाक उड़ाने को आए हैं 

खामोश इस जहाँ से गुजरना है जब तुम्हें 
खामोश इस जहाँ की तरफ़ देखते रहो 

चंद रोज़ और बदन तू भी ठिकाना है मुझे 
रास्ता छोड़ कि जल्दी में हूँ जाना है मुझे 

कैसी अजीब जंग लड़े जा रहे हैं हम 
जीता जिसे कोई नहीं हारा कोई नहीं 

गर भीड़ है तो भीड़ के आदाब निभाए 
इस भीड़ में अब कोई न पहचाने किसी को 

न तार तार गिरेबाँ न ख़ाक उड़ाते हुए 
किसी के कूचा-ए-ना-मेहरबाँ से निकलेंगे 

कमान तोड़ दी अपनी ज़िरह उतार चुका 
ख़ुशी मनाओ मेरे दुश्मनों में हार चुका 

फिल्मों में जंग देखी है इस नस्ल में अभी 
सच-मुच भी देख लेने दो इक बार चुप रहो 

तुम शाइरी करो ये तुम्हारा नहीं है काम 
ये तय करेंगे फ़ौज के सरदार चुप रहो 



चुप रहने का तंज़ करते अमीर का 'अपना शह्र' जो कभी 'अपनी इकाई' पे ख़त्म होता था अब लड़ाई पे खत्म होता दीखता है  ....

सवाल-ए-दस्त-ए-गदाई पे ख़त्म होता है 
ये शह्र ख़ुद से लड़ाई पे ख़त्म होता है 

           कौन से शह्र की बात अमीर कर रहे हैं ये जानने के लिए आपको उन्हें और-और पढ़ना होगा तभी आपको मा'लूम होगा कि बेनियाज़ अमीर जब नियाज़-मन्दाना होते हैं तो क़ारी को भी अपने साथ ऊपर की ओर ले चलते हैं ..

धूप से शाम की दीवार बना लेता हूँ 
रात हर रोज़ वो दीवार गिरा आती है 

       ये शह्र वो है जिसकी ता'मीर में अमीर और अमीर जैसे सैंकड़ों इमाम मुद्दतों से लगे हैं, और इस कारे-सवाब में उनका हाथ इ'श्क़ ही बँटाता है .. फेलियोर दर फेलियोर के बाद भी आपकी काविशों में कमी नहीं आती है तो यक़ीनन
आप इन्सान हैं, आप अमीर इमाम हैं..

     रोज़ बनते-ढहते इस शह्र के लिए फ़िक्रमंदी इतनी कि जितनी इक 'इन्सान' को होनी चाहिए , इस हवाले का शिकवा यूँ कि..

मेरी बस्ती की कोई तश्ना-दहानी देखे 
मुद्दतें गुजरीं किसी आँख में पानी देखे 

पेड़ों की छाँव ताज़ा हवा छीन ली गई 
इन बस्तियों से उनकी फ़िज़ा छीन ली गई 

उनके बुलंद हाथ क़लम कर दिए गये 
उनके लबों से उनकी दुआ छीन ली गई 

          अमीर जिस अहद का शाइर है उसके प्रति अपनी ज़िम्मेदारी से आरी नहीं है .. हक़-परस्ती और हक़-गोई अमीर के यहाँ भरपूर है 

हक़ तलब करते हुए लोगों को फ़रियादी कहें 
गर ये आज़ादी है कैसे इस को आज़ादी कहें 

आँधियों से लड़ रहें हैं जंग कुछ कागज़ के लोग 
हम पे लाजिम है कि इन लोगों को फ़ौलादी कहें 

और अब का अमीर फिर से ढाढस बँधाने लगता है ...

ये वक़्त पहले भी आकर गुज़र चुका है कई बार 
गुज़रता जाएगा ये वक़्त हौसला रक्खो 

जो आज आते हैं आँसू तो कोई बात नहीं 
लहू भी आएगा आँखों का दर खुला रक्खो 

           बातों में बात ये है कि अमीर जैसा जिस वक़्त महसूस करते हैं, कहते हैं; कहीं भी अपने दिल की कहने से चूकते नहीं हैं ... अब आप इसी दिल के हवाले से उनका ये शे'र पढ़िए..

 ऐ काश ! ये हयात भी होती इसी तरह 
हर रोज़ पिछले रोज़ के दिल से जुदा है दिल 

(बताइये अमीर इमाम और क्या है दिल? )

इतनी कमी रही कि फ़रिश्ता न हो सका 
इब्लीस दिल है, आदमी दिल है, ख़ुदा है दिल 

(आपके दिल की तबीयत कैसी है?)

चेहरों में भटकती हुई इस दिल की तबीयत 
बेचैन तो कह सकते हो हरजाई नहीं थी 



              अमीर इमाम ने इस मज्मूए में जो ग़ज़लें रखी हैं वो सीधे उनके दिल से ही निकलीं हैं शायद इसलिए तमाम मुश्किल लफ्ज़ियात-इज़ाफ़तों के बावजूद, मुझ ऐसे ग़ैर-उर्दू हलके में पले-पढ़े किसी शख़्स लिए उन से जुड़ जाना आसान है ! उतना ही आसान, जितनी आसान उनकी ज़बान बाज़ मौक़ों पर पाई जाती है.. सादा ज़बान के 'भरपूर' शे'र उनके यहाँ बड़ी तादाद में बरामद होते हैं.. 

आ गया है क़रार ही शायद 
मर न जाते अगर नहीं आता 

ज़िन्दगी का पता नहीं मालूम 
बस कहीं आस-पास रहती है 

पूछा जो मैंने  कोई तो होगा मिरी तरफ़
इक शख्स उठा और उठ के पुकारा कोई नहीं 

बिछड़ने वाले बिछड़ते चले गये हमसे 
किसी ने ये भी न सोचा अमीर इमाम हैं हम 

वो रात ही इस जिस्म पे आती थी बराबर 
वो रात भी वो ले गया पहनाने किसी को 

और फिर हमें भी ख़ुद पे बहुत प्यार आ गया 
उस की तरफ़ खड़े हुए जब हम मिले हमें 

कर ही क्या सकती है दुनिया और तुझ को देखकर 
देखती जाएगी और हैरान होती जाएगी 

हमारे जैसा नहीं कोई, यूं अकेले हैं 
हमारे जैसा कोई दूसरा बना दीजै 

हमारी सम्त कोई रास्ता नहीं आता 
हमारी सम्त कोई रास्ता बना दीजै 

क़रीब आया हूँ इतना अर्ज़ करने 
मैं तुमसे दूर होता जा रहा हूँ 

वो हमें और जुनूं और जुनूं चाहता है 
हम उसे और हसीं और हसीं चाहते हैं 

इक और किताब ख़त्म की फिर उस को फाड़ कर 
काग़ज़ का इक जहाज़ बनाया ख़ुशी हुई 

          इन तमाम नुमाइंदा अशआ'र के अलावा भी बहुत हैं जो आप किताब पढ़ कर ही दरयाफ़्त कर पाएंगे..(नई नवेली इज़ाफ़तें भी मिलेंगी)

       बहरहाल मैं कुछ अशआर पे अलग से बात करने का ख्वाहिश-मंद हूँ जैसे कि ये ..

क़ाफिये मिलते गये उ'म्र ग़ज़ल होती गई 
और चेहरा तेरा बुनियाद-ए-क़वाफी ठहरा 

     ... तो हज़रात दुनिया के साथ मैं भी उनके क़वाफी की बुनियाद, उनकी उम्र को ग़ज़ल करने वाले उस चेहरे को अमीर के साथ एक फ्रेम में देखना चाहता हूँ, चाहे इसके लिए मुझे 'सहबाला' ही क्यों न बनना पड़े..

अब नहीं बैठा करेंगे बस में खिड़की की तरफ़ 
तेरी बस्ती को बिना देखे गुज़र जाएंगे हम 

       इसे पढ़कर महबूब शाइर शारिक़ कैफ़ी का शे'र याद आता और मैं फिर से झूम उठता हूँ 

रात थी जब तुम्हारा शह्र आया 
फिर भी खिड़की तो मैनें खोल ही ली 

- शारिक़ कैफ़ी 
(अमीर ने अच्छा सोल्युशन दिया है, इस पे अम्ल किया जाएगा अबके)

......तो इतना सब लिखते हुए और इस शे'र से इत्तेफ़ाक रखते हुए, मैं आप अमीर इमाम हो गया हूँ कि ...

उसके तमाम हमसफ़र नींद के साथ जा चुके 
ख़्वाब-कदे में रह गया ख़्वाब-परस्त अमीर इमाम 

रात के चार बजे मैं दीवारों से पूछ रहा हूँ .......

फिर एक ख़्वाब को बेदार कर दिया किसने 
ये कौन रात के शाने झिंझोड़ कर निकला 

उठ के देखा तो ख़ामोशी के सिवा कोई न था 
रात भर किसने मेरा नाम पुकारा जाने 

ख़्वाब क्या चीज़ है और रात किसे कहते हैं 
नींद जाने या कोई नींद का मारा जाने 




          इस किताब के तमाम अशआर मुझे सच्चे लगे पर बेहद सच्चा ये शेर लगा, इतना सच्चा कि जी में आया कि मूंछों की जगह दाढ़ी लगा कर महफ़िलों में अपने नाम से पढ़ता फिरूँ  ..

चिड़चिड़ाहट, क़हक़हे, मूंछें, लतीफ़े, शाइरी 
ख़ुद को ज़ाहिर कर दिया तुझ को छुपाने के लिए 

           नज्मों पर मेरी ख़ामोशी को दाद समझा जाए.. आख़िरी नज़्म का आख़िरी मिसरा "...कि इस तज़बज़ुब ने हमको बुजदिल बना दिया है !" इस बात की ताईद करता है कि इस किताब को फिर से, शुरू' से पढ़ा जाए, जहाँ दर्ज़ है ...

रंग तमाम भर चुकी सुब्ह ब-ख़ैर ज़िन्दगी
मुझ में क़ज़ा निखर चुकी सुब्ह ब-ख़ैर ज़िन्दगी

तेरे भी ज़ख्म भर दिए और हवा-ए-वक़्त अब 
मेरे भी ज़ख्म भर चुकी सुब्ह ब-ख़ैर ज़िन्दगी 




[ रेख़्ता बुक्स की ओर से प्रकाशित 'सुब्ह ब-ख़ैर ज़िन्दगी' को आप अमेज़न से मंगा सकते हैं.. क़ीमत 199 रूपये मात्र ]

22 अपैल 2018
नई दिल्ली

Sunday 8 April 2018

किताबें बोलती है - 9

तन्हाइयों का रक़्स : सिया सचदेव

समीक्षा डॉ. राहुल अवस्थी



एक अना अब भी ज़िन्दा है..


         बड़ी बेअदब है अदब की दुनिया : पता ही न चले कब कौन गिरह लगा गया। हाल-फ़िलहाल हालत और हालात ये कि जो जितना बेअदब, वो उतना बड़ा अदीब.. और फिर व्हाट्सअप-फ़ेसबुक का दौर - जितने नामों में शायर-कवि बतौर उपसर्ग मिले, उनमें से प्रायः शत-प्रतिशत को इसके अलावा सब जानना। चेहरा ही नहीं कहीं - मुखौटे ही मुखौटे, मुखौटों पर मुखौटे! प्याज के वल्कों की तरह : जितना उतारते चले जाओ, बसाते और अँसुआते चले जाओगे। ऐसे में कोई नूरानी रूह अपने चिर चेहरे में चली आये तो उसको सिया सचदेव समझ लेना।



         सिया सचदेव को सियासत वाले समझने से रहे। सिया के सत् को समझने वालों को ही उन्हें समझने का अधिकार है। उनके होने की गवाही उनकी शफ़्फ़ाक़ और प्रशान्त पाक़ीज़गी है। उर्दू की शायरी में वे हिन्दी की महादेवी वर्मा हैं। मुझे माफ़ न किया जाये मेरे ये कहते हुए कि कवयित्रियाँ कहलाने वाली अधिकतर औरतें फ़ेक हैं। मेकअप से लेकर पैकअप तक ही इनकी गति है, बाक़ी का काम तो रेस्पॉन्सर और स्पॉन्सर ही कर रहे हैं। ये सब प्रस्तोतियाँ हैं : लिसलिसे लास्य के लबादे में लिपटी आत्मिकतः अभद्र अदाकाराएँ - अपने-अपने स्वार्थों के वशीभूत निर्देशकों के इशारों पर नाचती-गाती-इठलाती हुई हाँड़-मांस की अभिशप्त कठपुतलियाँ। इस विडम्बनापूर्ण विषम समय में भी जिसने स्टेज से अधिक मेज़ को अपनी लेखनीय प्राथमिकता रखा, उस सिया सचदेव का अन्तस् से अभिनन्दन भी हम खुलकर न कर सकें तो निश्चयतः निहायत कायर हैं हम।



         उनका कहन कुछ ऐसा है कि मैं मर-मर जाता हूँ, मर-मर जीता हूँ। वे मेरे साथ दुर्घटित ज़्यादातर घटनाओं की यथासम्भव और प्रायः यथाभाव काव्यानुवादक हैं। बेबस निःशब्द आहें उनकी कविता में क़दम-क़दम कराहती नहीं, समाधिस्थ मिलेंगी। उनकी शायरी के प्रभाव का परिणाम वारुणी के साग़र में निढालना के उपकरण नहीं, करुणा की वरुणा-प्रवाहणा के समीकरण रचता है। न केवल कथन की नवीनता के अन्वेषण में ही उनको दैवी नैपुण्य प्राप्त है प्रत्युत शिल्प पर भी उनका सहज अधिकार है। आज जब कहन और तग़ज़्ज़ुल लफ़्ज़ तक से शायराएँ और अदीबें अपरिचित हैं, तब सियाजी का फ़न-ए-सुखन और फ़न-ए-अरूज़ सुखानुभूति भी कराता है और आश्वस्ति भी प्रदान करता है कि हाँ, अभी महिला रचनाकारों में कुछ नाम तो ऐसे हैं, जिनसे आस बँधी रहेगी - जो शायरी से नहीं, शायरी जिनसे चलती रहेगी और फिर डायरी से चलना अलग बात है और शायरी से चलना अलग बात। आज जब कविता की कलंकिनी लंकिनियाँ मिलते गिनी भी न जा रही हों, टंच माल उड़ाने की जुगत-मति-धृति और व्यवहृति वाली मञ्च-प्रपञ्च की आसुरी सुरसाओं के मध्य सिया सचदेव से भेंटाना अहोभाग्य ही होता है।



         लिप्साओं वाले मूल्य और मूलहीन तथाकथित कविताओं के चालू दौर में मूल्यवत्ता और मौलिकता उनकी सृजनात्मकता का हठ है। सब धान बाईस पसेरी करने वाले व्यापारियों! उनका न अब कुछ हो सकता है और न कोई कुछ कर सकता है क्योंकि ख़ुद उनको वह करना है निरन्तर, जो उनकी आत्मा में उपस्थित परमचेतना की गवाही है, जो उनकी आत्मा का आदेश है। स्टेज की ग्लैम-डॉलें काश! इनसे कुछ सीख सकें तो कविता का कल्याण हो जाये और कवयित्री शब्द का भी। सौ तरह की चटखारेदार बातें भी बननी बन्द हो जायें और चटखारों भरा भोग लगाने वाले भोगी भी मन्द हो जायें। सर्वाधिक भला उन सम्भावनाशील ओरिजिनल प्रतिभाओं का होगा, जो अपनी मौलिकता लिये साहित्य के सहारे स्टेज पर आने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही हैं। इस पुस्तक को पढ़कर कइयों को यह समझ भी आना चाहिए कि आधा होंठ दाँतों से दबाते-चबाते सीत्कार करती मञ्चीय महिलाओं की निहायत सस्ती और कामोत्तेजक कविताएँ कहीं से भी आज की सही ग़ज़ल का प्रतिनिधित्व नहीं करतीं। ऐसी पहचान तो सुना है, अण्टे की कोठे वाली रक्काशाओं की रही है। सिसकार मारने से ही श्रृंगार नहीं हो जाता। काव्यमञ्च तो माँ वाणी का आराधन-अधिष्ठान है और उस पर उपस्थित कवयित्रियाँ वाणी की वरद पुत्रियाँ। यह मञ्च के ठेकेदार उन तथाकथित कवियों को भी ठीक से समझ आना चाहिए, जिन्होंने निहित स्वार्थों की पूर्ति हेतु साज़िशात्मक रणनीतियों से सरलता से सफलता पा जाने की उच्छिष्ट चाह रखने वाले-वालियों के चलते काव्यसमारोहों को असाहित्यिकता और अकविता का ही नहीं, कुत्साओं और कुकवियों का अड्डा बनाकर रख दिया है, जहाँ निर्मल और असल क़लमकारों का आना सख़्त मना है !



         सिया की संकल्पिता और इस पुस्तक की विशेषता को इसी पुस्तक के दो शे'रों से कह देना काफ़ी होगा और सिया के वे दो शे'र कुछ यूँ कि -

वो है आदमी कोई आदमी, जो किसी के काम न आ सके
वो चराग़ भी है चराग़ क्या, सरे रहग़ुज़र जो जला न हो


ऐ ख़ुदा ए पाक की रहमतों कोई ऐसा शे'र अता करो
जो कभी किसी ने सुना न हो जो कभी किसी ने कहा न हो


         ग़ज़ल की चालू परिभाषाओं और आशाओं से अलग हटते हुए स्टेज की आम्रपालियों को अपना भविष्य सुधारने और अपने जीवन में बुद्धत्व की सन्निधि के लिये एक-दो बार इस कृति को क़ायदे से पढ़ना चाहिए। माँ की कृपावशात् शायद उनके अन्तस् में सृजना का उन्मेष, मौलिकता का उद्भास और अलौकिकता का आलोक हो सके। अब ये वक़्त है इस पुस्तक के बहाने दलित विमर्श और नारी विमर्श की तर्ज और तर्ह पर कवयित्री विमर्श का। उसे भी मुक्ति चाहिए ज़लज़लाते जलाते जलते सवालों से, ज़िन्दगी भर के मलालों से, कविता के दलालों से। बहुत तरह चमकने के बाद भी वो कई तरह आज भी बेचारी है। उसकी भी मञ्चीय उम्र फ़िल्मी अदाकाराओं की तरह आज भी कम है। पेशे से कवि नाम वाले साठे पर पाठे बने बुढ़ापे तक डटे रहते हैं और वो तुरत-फुरत चुकता और चलती कर दी जाती है। फ़िल्म इण्डस्ट्री की तरह करोड़ों की कविता इण्डस्ट्री खड़ी हो चुकी है। यहाँ भी वही सब शुरू हो चुका है - चोरी-चकारी, मारामारी, मक्कारी, ग़द्दारी, अय्यारी, पतियाना, हथियाना, लतियाना, ले भागना, छोटी-छोटी माँगना, बड़ी-बड़ी दागना, पीना-पिलाना, नशे के पाउच, कास्टिंग काउच और न जाने क्या-क्या! अब इसके रूल्स और रेगुलेशन्स भी लिखे जाने चाहिए। हालाँकि कवि निरंकुश होता है और उसको बन्धन नहीं बाँधते, वो उन्मुक्त होता है किन्तु इन पुरानी सहज मान्यताओं के कारण उसे उच्छृंखल और अधिनायक होने की अनुमति नहीं दी जा सकती। सम्पूर्ण स्वच्छन्दता सही नहीं, इससे आवश्यक स्थैर्य भी नहीं आता। छन्द है तो जीवन है और जीवन है तो छन्द है; इस सनातन सत्य को समझना होगा। छन्दहीनता व्यक्ति को बिखरा डालती है। शॉर्टकट सफलता पाने का आसान साधन तो हो सकता है किन्तु सच्चा तरीक़ा कभी नहीं हो सकता : अपनी इंसानी सीमाओं में ही असीमित प्रतिभा का अस्तित्व सुरक्षित और सार्थक होता है। समीक्षित इस पुस्तक का सन्देश ही यही है -

हमें ख़ुद से ग़ुज़रना रह गया है 
यही इक काम करना रह गया है

बुलन्दी पर तो देखो आ गये हो
बुलन्दी पर ठहरना रह गया है..

डॉ. राहुल अवस्थी



तन्हाइयों का रक़्स : सिया सचदेव
प्रथम संस्करण - 2017
₹ 200 मात्र
ऐनी बुक, ग़ाज़ियाबाद

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Saturday 7 April 2018

किताबें बोलती है - 8

चांद को सब पता है - राकेश मधुर
समीक्षा- डॉ. सुशील शीलू



       ‘चांद को सब पता है’ हरियाणा साहित्य अकादमी के सौजन्य से प्रकाशित राकेश ‘मधुर’ का प्रथम कविता-संग्रह है। इन कविताओं में इंद्रधनुष की मानिंद कई रंग हैं जिनकी आभा आसमान की स्पर्श करती है लेकिन उसके दोनों छोर जमीन से जुड़े हुए हैं। कविता-संग्रह का समर्पण ही विशिष्ट है। वे क्षमा-भाव को सर्वोपरि मानते हैं। इसके साथ-साथ वे फर्ज निभाने, उत्तरदायित्वों का निर्वहन अनिवार्य समझते हैं। ‘मधुर’ संग्रह की प्रथम कविता ‘कविता आदेश है’ में कविता की परिभाषा और उसकी रचना प्रक्रिया कविता के माध्यम से व्यक्त करते हैं। उनके शब्दों में कविता की परिभाषा देखिए—

    पुरा स्मृतियों का/ योग्य अवशेष है/ कविता कवि-मन को/ परिस्थितियों का आदेश है

     जीवन-संघर्ष की अंधी-दौड़ की असलियत प्रस्तुत करते हुए ‘मधुर’ कहते हैं—और बचे-खुचे/ जो लड़ रहे हैं सिद्धांतों की लड़ाई/ सोचने में बिल्कुल मुझे जैसे/ डटे होंगे रणक्षेत्र में/ कट रहे होंगे जर्रा-जर्रा/ लगे होंगे तन्मयता से/ हर पल की पराजय टालने में।

      ‘मधुर’ अमनपसंद व्यक्ति हैं। वे तर्क देते हैं कि मानव दूसरे ग्रहों-उपग्रहों पर जीवन तलाशता है लेकिन दूसरी तरफ अपनी ही धरती को नष्ट कर रहा है। आतंक मानव और उसके अस्तित्व के लिए खतरा है। कवि चांद को प्रतीक बनाकर मानव के सुखद भविष्य के लिए दुनिया को शांति और सौहार्द का संदेश देना चाहता है—

     जब जमीन के सीने पर/ कोई बम फटता है, तो/ चांद भी कांपता है/ किसी मिसाइल या राकेट के हमले को/ चांद बहुत गौर से देखता है/ चांद बहुत मायूस होता है/ जब कोई बेकसूर मरता है/ चांद बहुत सोचता है/ चांद को सब पता है।

     मंज़ील कविता के माध्यम से ‘मधुर’ जीवन की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। वे चेतावनी देते हैं कि अंत समय तुम्हें ऐसा लगेगा कि असली ज़िदगी तो तुमने बिताई ही नहीं। वे कहते हैं बाद में अफसोस करने से बेहतर है जीवन के उस खूबसूरत हिस्से को अभी भरपूर तरीके से जीओ—

     असल में/ दुनिया के साथ-साथ/ तुम भी/ एक गोल दायरे के गिर्द/ दौड़ रहे हो/ आगे देखते हो तो—/ सबसे पीछे हो/ पीछे देखते हो तो/ सबसे आगे हो।

(असलियत पृ. 18-19)



              आमतौर पर व्यक्ति स्वयं को श्रेष्ठ मानता है लेकिन दूसरों के व्यक्तित्व का भी आकलन नहीं करना चाहता। उनकी दृष्टि में अभी भी सच्चे और अच्छे लोग सृष्टि में विद्यमान हैं। अपने आपको श्रेष्ठ मानकर ‘मधुर’ अन्य की तौहीन नहीं करते बल्कि प्रत्येक व्यक्ति के जुझारुपन की संभावना को सकारात्मक रखकर उन्हें सम्मान देते हैं, सलाम करते हैं—

(हर पल की पराजय, पृ. 20-21)

(चांद को सब पता है, पृ. 24-25)

     कभी बीच रास्ते में ही/ बस उतरकर देखो/ कभी कटी-पतंग के पीछे/ दौड़कर देखो/ कभी हाथ बंटा कर देखो/ पत्नी का घर के काम में/ याद रखना जिस दिन तुम/ मंज़िल पर पहुंचोगे/ तुम्हें पता चलेगा कि/ तुम्हारी असली मंज़िल तो/ रास्तों में थी।

     मधुर की कविताओं में शब्दों का स्वाभाविक प्रवाह है जो किसी नदी की तरह बहकर पाठक के हृदय में कल-कल करता हुआ मस्तिष्क रूपी सागर में विचारों की वृद्धि करता चला जाता है—

     बंधूं तो/ बुढिय़ा की साड़ी के/ पल्लू से/ सिक्के-सा/ चलूं तो/ रोके से भी/ न रुकने वाले/ प्रेम के/ चर्चे-सा।

(अभिलाषा, पृ. 83)

     कवि पुरुष से एक प्रश्न करता है। स्त्री की आंखों में झील देखता है, जुल्फों में बादल देखता है, होंठों में गुलाब देखता है पर मन में क्यों नहीं झांकता—

     पर तुम/ नहीं देखते/ वो मरुस्थल/ जो उसके मन में है/ तुम कभी नहीं जाते उधर/ शायद/ अपने खो जाने के डर से।

(मरुस्थल, पृ. 77)


     ‘मधुर’ बाजारवाद से उत्पन्न सामाजिक, नैतिक पतन से खिन्न हैं। वे ऐसी व्यवस्था नहीं चाहते जिसमें इंसानियत की कोई कीमत ही न हो। वे नहीं चाहते भौतिकवाद मानवीय पहलू पर हावी हो—

     और तुम्हारे भीतर के/ आदमी ने/ जब कभी तुमसे/ बात करनी चाही/ उसकी जुबान पर तुमने/ जलता हुआ कोयला रख दिया।

(परिवर्तन, पृ. 65)

     कवि इस तरह के संकुचित दायरों को तोड़ मानवीय मूल्यों की स्थापना के द्वारा सदभावनापूर्ण समाज चाहते हैं।

     मधुर युवा भी हैं और प्रौढ़ भी। उनकी कविताओं में नूतनता व ताजगी भी है तथा संशलिष्ट गंभीर प्रौढ़ता भी उनकी एक अद्भुत बिंब योजना देखिए—

     धुंध में पहाड़/ ऐसे लगा/ जैसे/ किसी किसान ने/ अपने ऊंचे उपलों के ढेर को/ ढक दिया हो/ सफेद बरसाती से/ बारिश के डर से।

(धुंध में पहाड़, पृ. 56)

      संग्रह के अंत में कुछ गीतनुमा, तुकांत शैली कविताएं हैं। उनमें मधुर उतनी ही सहजता से अपनी बात कहने में सफल रहते हैं। अन्य कविताएं ‘मन की आंखें’, ‘हवा’, ‘हौसले’, ‘कीमत’, ‘मां’, ‘कविता’, ‘आम बात’, ‘इंद्रधनुष’, ‘माचिस’, ‘मुश्किल’, ‘साथ’, ‘तेरा-मेरा साथ’ आदि अपना प्रभाव पाठक पर छोड़ती हैं। सुप्रतिष्ठित शायर मंगल नसीम के अनुसार राकेश ‘मधुर’ की कविताओं में आज के हालात की खामियों-खूबियों की विवेकपूर्ण जांच-परख एवं बेहद सटीक प्रतिक्रिया मिलती है। वे इन कविताओं में बारहा थोड़े तल्ख और साफगो नजर आते हैं लेकिन एक सच्चे रचनाकार का ऐसा नजर आना स्वाभाविक ही है।

      हिंदी ग़ज़ल को नये मुहावरे और नये संस्कारों की ओर ले जाने वाले सर्वोपरि हिन्दी ग़ज़लकार के रूप में प्रतिष्ठित जनाब जहीर कुरेशी के शब्दों में ‘मधुर’ के पास संवेदनाएं हैं। वे कुछ ऐसा भी देख पाते हैं जो अलग है, अछूता है, अनूठा है। इन कच्चे-पक्के अनुभवों से जो लिखा गया है वह आश्वस्तिकारक है।

     संक्षेप में, कहा जा सकता है राकेश ‘मधुर’ की कविताएं उस यथार्थ को उत्कटतापूर्वक जीने के लिए प्रेरित करती हैं जिसे व्यर्थ समझकर नष्ट किया जा रहा है। उनकी कविताएं जीवन को जीने की कला हैं।

समीक्षा: डॉ. सुशील शीलू

पुस्तक : चांद को सब पता है 
कविता-संग्रह : राकेश ‘मधुर’
प्रकाशक : अमृत प्रकाशन,
शाहदरा-दिल्ली -110032 
पृष्ठ : 96