Sunday 22 April 2018

किताबें बोलती है - 10

सुब्ह बख़ैर ज़िन्दगी : अमीर इमाम


अपनी बात : तरकश प्रदीप



इस शाइरी में कुछ नहीं नक़्क़ाद के लिए
दिलदार  चाहिए  कोई   दीवाना  चाहिए

          ऐलानिया तौर पे ये शे'र नाक़िद को आगाह करता है तो मुझ ऐसे 'दीवाना' होने का वहम पाले हुओं को झूमने पर मजबूर ! साफ़ कहूँ तो मेरे नजदीक नक़्क़ाद वो शै है जो 'कुछ नहीं' में भी 'बहुत कुछ' खोज लाने का दम्भ रखती है तो वहीं अपनी मर्ज़ी का 'कुछ-कुछ' अक्खों-परोखे (आँख से ओझल) रखने की आज़ादी का भरपूर इस्तेमाल भी करती है ! नक़्क़ाद न होने के बावजूद ऐसा कुछ-कुछ करने की मंशा मैनें भी पाल ली है सो मैं भी अपनी पसन्द ही की बात करूँगा !

     बात अमीर इमाम के दूसरे शेरी मज्मूए की हो रही है (जो अमेज़न की कृपा से तीसरी बार ऑर्डर करने पर मुझे नसीब हुआ है ) ! ख़ैर... ख़बर ये है कि 'सुब्ह ब-ख़ैर ज़िन्दगी' के अमीर 'ज़िन्दगी' में एक नया रंग भरने के काम को अंजाम देते रँगे हाथ पकड़े गये हैं .. लेकिन ध्यान रहे कि ये काम भी उन्होंने ऐलानिया ही किया है , इस हवाले से इसी किताब का शे'र है ..

सोचती रह जाएगी दुनिया इसे क्या नाम दूं 
ज़िन्दगी तुझ में इक ऐसा रंग भर जाएंगे हम 




            अमीर को इस हिमाक़त की सज़ा मिलनी ही चाहिए और सज़ा ये है कि आपको अमीर इमाम और उसकी शाइरी से मुहब्बत करना होगी. 

              आप अमीर से ज़ाती तौर पर वाक़िफ़ हैं तो इस बात पर मुझ से इत्तेफ़ाक रखेंगे कि तलाश-ए-ज़ात में मुब्तला अमीर ऐन उसी तनाव और तनतनाव के साथ इस मज्मूए में मौजूद हैं जो उनकी अस्ल ज़िन्दगी का हासिल है ! अमीर का आलिम जब जब उसके शाइर से टकराता है तो उस टकराहट की शे'री गूँज क़ारी के ज़हन की वादियों में देर तक हलचल मचाए रखती है! दिबाचे में आप ने अपने मुहब्बती स्वभाव के हक़ में जो दलाइल पेश कीं हैं उनके आगे नाक़िद का शोर नक्कारखाने की तूती भर साबित होता है ! खैर.. मैं नक़्क़ादों 'की' और नक़्क़ादों 'सी' बात क्यूँ करूँ .. बात करूँगा उस शै की, जो मुझे अज़ीज़ है और जिसके अलम-बर-दार अमीर इमाम भी हैं .. यहाँ 'भी' निपात की जगह 'ही' का इस्तेमाल आप करते है तो ये जुमला और वाज़ेह हो जाता है! बात हो रही उस शै की जो इश्क़ के सिवा क्या ही होगी !



             समन्दर के खारे पानी से उभरती किसी सिने-तारिका की मानिंद दुनिया की कुड़त्तण से इश्क़ के उभरने का मंज़र अमीर के यहाँ पाया जाता है, जिसे आप चाह कर भी भूल नहीं पाते .. इ'श्क़-सुर उनकी नग़मगी का प्रधान सुर है .. बक़ौल-ए-अमीर इमाम ..

पास बस एक कहानी है सुनाने के लिए 
उ'म्र भर एक कहानी को सुनाना है मुझे 

          ये कहानी इ'श्क़ की कहानी ही है जिसे अमीर बेसाख़्ता अपनी ज़ुबान में सुनाते हैं.. उनकी अपनी ज़ुबान जो उनकी अपनी ज़बान है ..

मक़तब-ए-इ'श्क़ में ता'लीम हुई है मेरी 
हाँ मुझे चाँद सितारों की ज़बाँ आती है 


ऐसे हैं हम तो कोई हमारी ख़ता नहीं 
लिल्लाह इ'श्क़ है हमें वल्लाह इ'श्क़ है 

जब्बार भी, रहीम भी, क़ह्हार भी वही 
सारे उसी के नाम हैं अल्लाह इ'श्क़ है 

तो कहीं वो कहते हैं ..

बदलते वक़्त से बदला नहीं नज़ारा-ए-इ'श्क़ 
वो आसमान-ए-ख़मोशी वही सितारा-ए-इ'श्क़

हम अहल-ए-इ'श्क़ को आता है हुक्म-ए-इ'श्क़ सदा 
किताब-ए-इ'श्क़ से करते हैं इस्तिख़ारा-ए-इ'श्क़ 

ये अमीर का ज़िम्मेदार आशिक़ ही है जो उनसे कहलवाता है ..

इश्क़ करना ज़िम्मेदारी है नतीजा कुछ भी हो 
सिर्फ़ पूरी अपनी ज़िम्मेदारियाँ करते रहो 

लब्बैक पहले हमने कहा था रसूल-ए-हुस्न 
हो कारज़ार ए इ'श्क़ तो परचम मिले हमें 



             अमीर इमाम की शाइ'री में भरपूर 'कुकनूसियत' भी मौजूद है .. आपके यहाँ जहाँ-तहाँ लगने लगता है कि बस अब 'और नहीं', और फिर इसी 'और नहीं' की कोख से एक उम्मीद पैदा होती है ! जैसा कि अस्ल ज़िन्दगी में होता है, तमाम अप्स एंड डाउन लिए आप का सफ़र बेनियाज़ी से 'चढ़दी कला' का है .. मिसाल के तौर पे ये अशआ'र देख लिए जाएँ..

बेनियाज़ अमीर इमाम कहता है..  

माना पड़ी हैं और भी लाशें, पड़ी रहें 
हम तो बस अपनी लाश उठाने को आए हैं 

दावा नहीं के लाएंगे नद्दी निकाल कर 
सहरा में सिर्फ ख़ाक उड़ाने को आए हैं 

खामोश इस जहाँ से गुजरना है जब तुम्हें 
खामोश इस जहाँ की तरफ़ देखते रहो 

चंद रोज़ और बदन तू भी ठिकाना है मुझे 
रास्ता छोड़ कि जल्दी में हूँ जाना है मुझे 

कैसी अजीब जंग लड़े जा रहे हैं हम 
जीता जिसे कोई नहीं हारा कोई नहीं 

गर भीड़ है तो भीड़ के आदाब निभाए 
इस भीड़ में अब कोई न पहचाने किसी को 

न तार तार गिरेबाँ न ख़ाक उड़ाते हुए 
किसी के कूचा-ए-ना-मेहरबाँ से निकलेंगे 

कमान तोड़ दी अपनी ज़िरह उतार चुका 
ख़ुशी मनाओ मेरे दुश्मनों में हार चुका 

फिल्मों में जंग देखी है इस नस्ल में अभी 
सच-मुच भी देख लेने दो इक बार चुप रहो 

तुम शाइरी करो ये तुम्हारा नहीं है काम 
ये तय करेंगे फ़ौज के सरदार चुप रहो 



चुप रहने का तंज़ करते अमीर का 'अपना शह्र' जो कभी 'अपनी इकाई' पे ख़त्म होता था अब लड़ाई पे खत्म होता दीखता है  ....

सवाल-ए-दस्त-ए-गदाई पे ख़त्म होता है 
ये शह्र ख़ुद से लड़ाई पे ख़त्म होता है 

           कौन से शह्र की बात अमीर कर रहे हैं ये जानने के लिए आपको उन्हें और-और पढ़ना होगा तभी आपको मा'लूम होगा कि बेनियाज़ अमीर जब नियाज़-मन्दाना होते हैं तो क़ारी को भी अपने साथ ऊपर की ओर ले चलते हैं ..

धूप से शाम की दीवार बना लेता हूँ 
रात हर रोज़ वो दीवार गिरा आती है 

       ये शह्र वो है जिसकी ता'मीर में अमीर और अमीर जैसे सैंकड़ों इमाम मुद्दतों से लगे हैं, और इस कारे-सवाब में उनका हाथ इ'श्क़ ही बँटाता है .. फेलियोर दर फेलियोर के बाद भी आपकी काविशों में कमी नहीं आती है तो यक़ीनन
आप इन्सान हैं, आप अमीर इमाम हैं..

     रोज़ बनते-ढहते इस शह्र के लिए फ़िक्रमंदी इतनी कि जितनी इक 'इन्सान' को होनी चाहिए , इस हवाले का शिकवा यूँ कि..

मेरी बस्ती की कोई तश्ना-दहानी देखे 
मुद्दतें गुजरीं किसी आँख में पानी देखे 

पेड़ों की छाँव ताज़ा हवा छीन ली गई 
इन बस्तियों से उनकी फ़िज़ा छीन ली गई 

उनके बुलंद हाथ क़लम कर दिए गये 
उनके लबों से उनकी दुआ छीन ली गई 

          अमीर जिस अहद का शाइर है उसके प्रति अपनी ज़िम्मेदारी से आरी नहीं है .. हक़-परस्ती और हक़-गोई अमीर के यहाँ भरपूर है 

हक़ तलब करते हुए लोगों को फ़रियादी कहें 
गर ये आज़ादी है कैसे इस को आज़ादी कहें 

आँधियों से लड़ रहें हैं जंग कुछ कागज़ के लोग 
हम पे लाजिम है कि इन लोगों को फ़ौलादी कहें 

और अब का अमीर फिर से ढाढस बँधाने लगता है ...

ये वक़्त पहले भी आकर गुज़र चुका है कई बार 
गुज़रता जाएगा ये वक़्त हौसला रक्खो 

जो आज आते हैं आँसू तो कोई बात नहीं 
लहू भी आएगा आँखों का दर खुला रक्खो 

           बातों में बात ये है कि अमीर जैसा जिस वक़्त महसूस करते हैं, कहते हैं; कहीं भी अपने दिल की कहने से चूकते नहीं हैं ... अब आप इसी दिल के हवाले से उनका ये शे'र पढ़िए..

 ऐ काश ! ये हयात भी होती इसी तरह 
हर रोज़ पिछले रोज़ के दिल से जुदा है दिल 

(बताइये अमीर इमाम और क्या है दिल? )

इतनी कमी रही कि फ़रिश्ता न हो सका 
इब्लीस दिल है, आदमी दिल है, ख़ुदा है दिल 

(आपके दिल की तबीयत कैसी है?)

चेहरों में भटकती हुई इस दिल की तबीयत 
बेचैन तो कह सकते हो हरजाई नहीं थी 



              अमीर इमाम ने इस मज्मूए में जो ग़ज़लें रखी हैं वो सीधे उनके दिल से ही निकलीं हैं शायद इसलिए तमाम मुश्किल लफ्ज़ियात-इज़ाफ़तों के बावजूद, मुझ ऐसे ग़ैर-उर्दू हलके में पले-पढ़े किसी शख़्स लिए उन से जुड़ जाना आसान है ! उतना ही आसान, जितनी आसान उनकी ज़बान बाज़ मौक़ों पर पाई जाती है.. सादा ज़बान के 'भरपूर' शे'र उनके यहाँ बड़ी तादाद में बरामद होते हैं.. 

आ गया है क़रार ही शायद 
मर न जाते अगर नहीं आता 

ज़िन्दगी का पता नहीं मालूम 
बस कहीं आस-पास रहती है 

पूछा जो मैंने  कोई तो होगा मिरी तरफ़
इक शख्स उठा और उठ के पुकारा कोई नहीं 

बिछड़ने वाले बिछड़ते चले गये हमसे 
किसी ने ये भी न सोचा अमीर इमाम हैं हम 

वो रात ही इस जिस्म पे आती थी बराबर 
वो रात भी वो ले गया पहनाने किसी को 

और फिर हमें भी ख़ुद पे बहुत प्यार आ गया 
उस की तरफ़ खड़े हुए जब हम मिले हमें 

कर ही क्या सकती है दुनिया और तुझ को देखकर 
देखती जाएगी और हैरान होती जाएगी 

हमारे जैसा नहीं कोई, यूं अकेले हैं 
हमारे जैसा कोई दूसरा बना दीजै 

हमारी सम्त कोई रास्ता नहीं आता 
हमारी सम्त कोई रास्ता बना दीजै 

क़रीब आया हूँ इतना अर्ज़ करने 
मैं तुमसे दूर होता जा रहा हूँ 

वो हमें और जुनूं और जुनूं चाहता है 
हम उसे और हसीं और हसीं चाहते हैं 

इक और किताब ख़त्म की फिर उस को फाड़ कर 
काग़ज़ का इक जहाज़ बनाया ख़ुशी हुई 

          इन तमाम नुमाइंदा अशआ'र के अलावा भी बहुत हैं जो आप किताब पढ़ कर ही दरयाफ़्त कर पाएंगे..(नई नवेली इज़ाफ़तें भी मिलेंगी)

       बहरहाल मैं कुछ अशआर पे अलग से बात करने का ख्वाहिश-मंद हूँ जैसे कि ये ..

क़ाफिये मिलते गये उ'म्र ग़ज़ल होती गई 
और चेहरा तेरा बुनियाद-ए-क़वाफी ठहरा 

     ... तो हज़रात दुनिया के साथ मैं भी उनके क़वाफी की बुनियाद, उनकी उम्र को ग़ज़ल करने वाले उस चेहरे को अमीर के साथ एक फ्रेम में देखना चाहता हूँ, चाहे इसके लिए मुझे 'सहबाला' ही क्यों न बनना पड़े..

अब नहीं बैठा करेंगे बस में खिड़की की तरफ़ 
तेरी बस्ती को बिना देखे गुज़र जाएंगे हम 

       इसे पढ़कर महबूब शाइर शारिक़ कैफ़ी का शे'र याद आता और मैं फिर से झूम उठता हूँ 

रात थी जब तुम्हारा शह्र आया 
फिर भी खिड़की तो मैनें खोल ही ली 

- शारिक़ कैफ़ी 
(अमीर ने अच्छा सोल्युशन दिया है, इस पे अम्ल किया जाएगा अबके)

......तो इतना सब लिखते हुए और इस शे'र से इत्तेफ़ाक रखते हुए, मैं आप अमीर इमाम हो गया हूँ कि ...

उसके तमाम हमसफ़र नींद के साथ जा चुके 
ख़्वाब-कदे में रह गया ख़्वाब-परस्त अमीर इमाम 

रात के चार बजे मैं दीवारों से पूछ रहा हूँ .......

फिर एक ख़्वाब को बेदार कर दिया किसने 
ये कौन रात के शाने झिंझोड़ कर निकला 

उठ के देखा तो ख़ामोशी के सिवा कोई न था 
रात भर किसने मेरा नाम पुकारा जाने 

ख़्वाब क्या चीज़ है और रात किसे कहते हैं 
नींद जाने या कोई नींद का मारा जाने 




          इस किताब के तमाम अशआर मुझे सच्चे लगे पर बेहद सच्चा ये शेर लगा, इतना सच्चा कि जी में आया कि मूंछों की जगह दाढ़ी लगा कर महफ़िलों में अपने नाम से पढ़ता फिरूँ  ..

चिड़चिड़ाहट, क़हक़हे, मूंछें, लतीफ़े, शाइरी 
ख़ुद को ज़ाहिर कर दिया तुझ को छुपाने के लिए 

           नज्मों पर मेरी ख़ामोशी को दाद समझा जाए.. आख़िरी नज़्म का आख़िरी मिसरा "...कि इस तज़बज़ुब ने हमको बुजदिल बना दिया है !" इस बात की ताईद करता है कि इस किताब को फिर से, शुरू' से पढ़ा जाए, जहाँ दर्ज़ है ...

रंग तमाम भर चुकी सुब्ह ब-ख़ैर ज़िन्दगी
मुझ में क़ज़ा निखर चुकी सुब्ह ब-ख़ैर ज़िन्दगी

तेरे भी ज़ख्म भर दिए और हवा-ए-वक़्त अब 
मेरे भी ज़ख्म भर चुकी सुब्ह ब-ख़ैर ज़िन्दगी 




[ रेख़्ता बुक्स की ओर से प्रकाशित 'सुब्ह ब-ख़ैर ज़िन्दगी' को आप अमेज़न से मंगा सकते हैं.. क़ीमत 199 रूपये मात्र ]

22 अपैल 2018
नई दिल्ली