Friday 7 June 2013

अमजद इस्लाम अमजद की गज़लें

अमजद इस्लाम अमजद




तुम से बिछड़ कर पहरों सोचता रहता हूँ 
अब में क्यूँ और किस की खातिर ज़िंदा हूँ 

मेरी सोचें बदलती जा रही हैं 

के यह चीजें बदलती जा रही हैं 

तमाशा एक है रोज़-ए-अज़ल से 

फ़क़त आँखें बदलती जा रही हैं

बदलते मंज़रों के आईने में

तेरी यादें बदलती जा रही हैं

दिलों से जोडती थी जो दिलों को

वोह सब रस्में बदलती जा रही हैं

न जाने क्यों मुझे लगता है अमजद

के वो नजरें बदलती जा रही हैं


हमें तो वो बोहत अच्छे लगे हैं 
न जाने हम उन्हें केसे लगे हैं 

तो क्या यह पर निकलने का है मौसम
हवा मैं जाल से खुलने लगे हैं

नए कातिल का इस्तकबाल है क्या 
पुराने ज़ख़्म क्यों भरने लगे हैं

अजब है यह तलिस्स्म हम-जुबानी
पराये लोग भी अपने लगे हैं 

दिलों का भेद अल्लाह जनता है 
बजाहिर आदमी अच्छे लगे हैं
चलेगी यह परेशानी कहाँ तक 
बता ए घर की वीरानी कहाँ तक 

बहोत लम्बी थी अब के, खुश्क'साली 
बरसता आंख से पानी कहाँ तक 

तेरे टूटे हुए गजरों के होते 
महेकती रात की रानी कहाँ तक 

रुकेगी कब तलक साँसों में खुशबु 
उड़ेगा रंग यह धानी कहाँ तक 

खिलौना है इसे तो टूटना है 
करें दिल की निगेहबानी कहाँ तक 

उसे बादल बुलाते है हमेशा 
समंदर मैं रहे पानी कहाँ तक 

आज यूँ मुस्कुरा के आये हो 
जेसे सब कुछ भुला के आये हो 

यह निशानी है दिल के लगने की 
यह जो तुम आज जा के आये हो 

क्यूँ झपकती नहीं मेरी आँखें 
चांदनी में नहा के आये हो 

दिल समंदर में चाँद सा उतरा 
केसी खुशबु लगा के आये हो 

क्या बहाना बना के जाना है 
क्या बहाना बना के आये हो 

आ गये हो तो आओ, बिस्मिल्लाह 
देर, लेकिन लगा के आये हो 


चाँद के साथ कई दर्द पुराने निकले 
कितने ग़म थे जो तेरे ग़म के बहाने निकले 

फ़स्ले-ए-गुल आई फिर इक बार असीरान-ए-वफ़ा 
अपने ही खून के दरया में नहाने निकले 

दिल ने इक ईंट से  तामीर किया ताज-महल 
तूने इक बात कही लाख फ़साने निकले 

दश्ते-ए-तनहाई-ए-हिज्राँ में खड़ा सोचता हूँ 
हाय क्या लोग मेरा साथ निभाने निकले
.......
कहाँ आ के रुकने थे रास्ते कहाँ मोड़ था उसे भूल जा
वो जो मिल गया उसे याद रख जो नही मिला उसे भूल जा

वो तेरे नसीब की बारिशें किसी और छत पे बरस गई
दिल-ए-बेखबर मेरी बात सुन उसे भूल जा उसे भूल जा 

मैं तो गुम था तेरे ही ध्यान में तेरी आस में तेरे गुमान में
हवा कह गई मेरे कान में मेरे साथ आ उसे भूल जा

तुझे चाँद बन के मिला था जो तेरे साहिलों पे खिला था जो 
वो था एक दरिया विसाल का सो उतर गया उसे भूल जा 

Saturday 1 June 2013

निदा फ़ाज़ली की ग़ज़लें

निदा फ़ाज़ली 

निदा फ़ाज़ली

गरज बरस प्यासी धरती पर पानी दे मौला
चिड़ियों को दाने,बच्चों को गुडधानी दे मौला

दो और दो का जोड़ हंमेशा चार कहां होता है
सोच समजवालों को थोड़ी नादानी दे मौला

फिर रोशन कर ज़हर का प्याला चमका नई सलीबें
झुठों की दुनिया में सच को ताबानी दे मौला

फिर मूरत से बाहर आकर चारो ओर बिखर जा
फिर मंदिर को कोई मीरा दीवानी दे मौला

तेरे होते कोई किसी की जान का दुश्मन क्यों हैं
जीने वालों को मरने की आसानी दे मौला

* * * * *

अब ख़ुशी है न कोई ग़म रुलाने वाला
हमने अपना लिया हर रंग ज़माने वाला

हर बे-चेहरा सी उम्मीद है चेहरा चेहरा

जिस तरफ़ देखिये आने को है आने वाला

उसको रुखसत तो किया था मुझे मालूम न था

सारा घर ले गया घर छोड़ के जाने वाला

दूर के चाँद को ढूँढ़ो न किसी आंचल में

ये उजाला नहीं आँगन में समाने वाला

इक मुसाफ़िर के सफ़र जैसी है सबकी दुनिया

कोई जल्दी में कोई देर में जाने वाला


अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफर के हम हैं
रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं

पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता हैं
अपने ही घर में किसी दुसरे घर के हम है

वक़्त के साथ है मिट्टी का सफर सदियों से 
किसको मालूम है कहाँ के किधर के हम हैं

चलते रहते है की चलना है मुसाफ़िर का नसीब
सोचते रहते है कि किस रहगुज़र के हम हैं