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Sunday 26 May 2013

अहमद फ़राज़

 अहमद फ़राज़ की ग़ज़लें 



अगर तुम्हारी ही आन का हैं सवाल 
चलो मैं हाथ बढ़ाता हूँ दोस्ती के लिए 
- अहमद फराज़ 


शोला था जल-बुझा हूँ हवायें मुझे न दो
मैं कब का जा चूका हूँ सदायें मुझे न दो

जो ज़हर पी चूका हूँ तुम्हीं ने मुझे दिया 

अब तुम तो ज़िन्दगी की दुआयें मुझे न दो

ऐसा कभी न हो के पलटकर न आ सकूं 

हर बार दूर जा के सदायें मुझे न दो

कब मुझ को एतराफ़-ए-मुहब्बत न था फराज़ 

कब मैंने ये कहा था सज़ायें मुझे न दो


सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते-जाते 
वरना इतने तो मरासिम थे की आते-जाते 

शिकवा-ए-जुल्मते-शब से तो कहीं बेहतर था 
अपने हिस्से की शमअ जलाते जाते 

कितना आसाँ था तेरे हिज्र में मरना जाना 
फिर भी इक उम्र लगी जाते-जाते 

उसकी वो जाने, पास-ए-वफा था की न था
तुम फराज़ अपनी तरफ से तो निभाते जाते 


जिंदगी से यही गिला है मुझे 
तू बहुत देर से मिला है मुझे 

हमसफ़र चाहिये हुजूम नहीं 
इक मुसाफ़िर भी काफ़िला है मुझे 

तू महोब्बत से कोई चाल तो चल 
हार जाने का हौंसला है मुझे 

लब कुशा हूं तो इस यकिन के साथ 
क़त्ल होने का हौंसला है मुझे 

दिल धड़कता नहीं सुलगता है 
वो जो ख्वाहिश थी,आबला है मुझे 

कौन जाने कि चाहतो में फराज़ 
क्या गंवाया है क्या मिला है मुझे 


किताबों में मेरे फ़साने ढूँढते हैं 
नादाँ हैं गुजरे जमाने ढूँढते हैं 

जब वो थे तलाशे-जिंदगी भी थी 
अब तो मौत के ठिकाने ढूँढते हैं 

मुसाफ़िर बे-खबर हैं तेरी आँखों से 
तेरे शहर में मैखाने ढूँढते हैं 

तुझे क्या पता ऐ सितम ढाने वाले 
हम तो रोने के बहाने ढूँढते हैं 

उनकी आँखों को यूं न देखो फराज़ 
नये तीर हैं, निशाने ढूँढते हैं 


इस से पहले की बेवफ़ा हो जाएँ 
क्यूं न ए दोस्त हम जुदा हो जाएँ 

तू भी हीरे से बन गया पत्थर
हम भी जाने क्या से क्या हो जाएँ

हम भी मजबूरियों का उज्र करें
फिर कहीं और मुब्तिला हो जाएँ

अब के गर तू मिले तो हम तुझसे

ऐसे लिपटे तेरी क़बा हो जाएँ

बंदगी हमने छोड़ दी फराज़
क्या करे लोग जब ख़ुदा हो जाएँ 
-अहमद फ़राज़

अहमद फ़राज़ और नूर जहाँ