क़मर इक़बाल
हर ख़ुशी मक़बरों पे लिख दी है
और उदासी घरों पे लिख दी है
एक आयत सी दस्त-ए-कुदरत ने
तितलियों के परों पे लिख दी है
जालियों को तराश कर किस ने
हर दुआ पत्थरों पे लिख दी है
लोग यूं सर छुपाए फिरते है
जैसे क़ीमत सरों पे लिख दी है
हर वरक़ पर है कितने रंग ' क़मर '
हर ग़ज़ल मंजरों पे लिख दी है
* * *
जीना है सब के साथ कि इंसान मैं भी हूँ
चेहरे बदल बदल के परेशान मैं भी हूँ
झोंका हवा का चुपके से कानों में कह गया
इक काँपते दिए का निगहबान मैं भी हूँ
इंकार अब तुझे भी है मेरी शनाख्त से
लेकिन न भूल ये तेरी पहचान मैं भी हूँ
आँखों में मंज़रों को जब आबाद कर लिया
दिल ने किया ये तंज़ कि वीरान मैं भी हूँ
अपने सिवा किसी से नहीं दुश्मनी ' क़मर '
हर लम्हा ख़ुद से दस्त ओ गरेबान मैं भी हूँ
* * *
ख़ुद की खातिर न ज़माने के लिए ज़िंदा हूँ
कर्ज़ मिट्टी का चुकाने के लिए ज़िंदा हूँ
किस को फ़ुर्सत जो मिरी बात सुने ज़ख्म गिने
ख़ाक हूँ ख़ाक उड़ाने के लिए ज़िंदा हूँ
लोग जीने के ग़रज-मंद बहुत है लेकिन
मैं मसीहा को बचाने के लिए ज़िंदा हूँ
रूह आवारा न भटके ये किसी की ख़ातिर
सरे रिश्तों को भुलाने के लिए ज़िंदा हूँ
ख़्वाब टूटे हुए रूठे हुए लम्हे वो 'क़मर'
बोझ कितने ही उठाने के लिए ज़िंदा हूँ
* * *