Sunday 13 August 2017

फरिहा नक़वी की ग़ज़लें

गज़लें

मिरी ज़ात के सुकूँ जा
थम जाए कहीं जुनूँ जा
रात से एक सोच में गुम हूँ
किस बहाने तुझे कहूँ जा
हाथ जिस मोड़ पर छुड़ाया था
मैं वहीं पर हूँ सर निगूँ जा
याद है सुर्ख़ फूल का तोहफ़ा?
हो चला वो भी नील-गूँ जा
चाँद तारों से कब तलक आख़िर
तेरी बातें किया करूँ जा
अपनी वहशत से ख़ौफ़ आता है
कब से वीराँ है अंदरूँ जा
इस से पहले कि मैं अज़िय्यत में
अपनी आँखों को नोच लूँ जा
देख! मैं याद कर रही हूँ तुझे
फिर मैं ये भी कर सकूँ जा
वो अगर अब भी कोई अहद निभाना चाहे
दिल का दरवाज़ा खुला है जो वो आना चाहे
ऐन मुमकिन है उसे मुझ से मोहब्बत ही हो
दिल बहर-तौर उसे अपना बनाना चाहे
दिन गुज़र जाते हैं क़ुर्बत के नए रंगों से
रात पर रात है वो ख़्वाब पुराना चाहे
इक नज़र देख मुझे!! मेरी इबादत को देख!!
भूल पाएगा अगर मुझ को भुलाना चाहे
वो ख़ुदा है तो भला उस से शिकायत कैसी?
मुक़्तदिर है वो सितम मुझ पे जो ढाना चाहे
ख़ून उमड आया इबारत में, वरक़ चीख़ उठे
मैं ने वहशत में तिरे ख़त जो जलाना चाहे
नोच डालूँगी उसे अब के यही सोचा है
गर मिरी आँख कोई ख़्वाब सजाना चाहे
शनासाई का सिलसिला देखती हूँ
ये तुम हो कि मैं आइना देखती हूँ
हथेली से ठंडा धुआँ उठ रहा है
यही ख़्वाब हर मर्तबा देखती हूँ
बढ़े जा रही है ये रौशन-निगाही
ख़ुराफ़ात-ए-ज़ुल्मत-कदा देखती हूँ
मिरे हिज्र के फ़ैसले से डरो तुम!
मैं ख़ुद में अजब हौसला देखती हूँ
लाख दिल ने पुकारना चाहा
मैं ने फिर भी तुम्हें नहीं रोका
तुम मिरी वहशतों के साथी थे
कोई आसान था तुम्हें खोना?
तुम मिरा दर्द क्या समझ पाते
तुम ने तो शेर तक नहीं समझा
क्या किसी ख़्वाब की तलाफ़ी है?
आँख की धज्जियों का उड़ जाना
इस से राहत कशीद कर!! दिन रात
दर्द ने मुस्तक़िल नहीं रहना
आप के मश्वरों पे चलना है?
अच्छा सुनिए मैं साँस ले लूँ क्या?
ख़्वाब में अमृता ये कहती थी
इन से कोई सिला नहीं बेटा
देख तेज़ाब से जले चेहरे
हम हैं ऐसे समाज का हिस्सा
लड़खड़ाना नहीं मुझे फिर भी
तुम मिरा हाथ थाम कर रखना
वारिसान-ए-ग़म-ओ-अलम हैं हम
हम सलोनी किताब का क़िस्सा
सुन मिरी बद-गुमाँ परी!! सुन तो
हर कोई भेड़िया नहीं होता
बीते ख़्वाब की आदी आँखें कौन उन्हें समझाए
हर आहट पर दिल यूँ धड़के जैसे तुम हो आए

ज़िद में कर छोड़ रही है उन बाँहों के साए
जल जाएगी मोम की गुड़िया दुनिया धूप-सराए

शाम हुई तो घर की हर इक शय पर कर झपटे
आँगन की दहलीज़ पे बैठे वीरानी के साए

हर इक धड़कन दर्द की गहरी टीस में ढल जाती है
रात गए जब याद का पंछी अपने पर फैलाए

अंदर ऐसा हब्स था मैं ने खोल दिया दरवाज़ा
जिस ने दिल से जाना है वो ख़ामोशी से जाए

किस किस फूल की शादाबी को मस्ख़ करोगे बोलो !!!
ये तो उस की देन है जिस को चाहे वो महकाए
* * * * *

Sunday 1 May 2016

सिराज फ़ैसल खान की ग़ज़लें और नज़्में

सिराज फ़ैसल खान 



माना मुझको दार पे लाया जा सकता है 
लेकिन मुर्दा शहर जगाया जा सकता है 

लिक्खा हैं तारीख़ सफ़हे सफ़हे पर ये 
शाहों को भी दास बनाया जा सकता है 

चाँद जो रूठा राते काली हो सकती है 
सूरज रूठ गया तो साया जा सकता है 

शायद अगली इक कोशिश तक़दीर बदल दें 
ज़हर तो जब जी चाहें खाया जा सकता है 

कब तक धोखा दे सकते है आईने को 
कब तक चेहरे को चमकाया जा सकता है 

पाप सभी कुटिया के भीतर हो सकते है 
हुजरे के अंदर सब खाया जा सकता है 

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वो बड़े बनते हैं अपने नाम से 
हम बड़े बनते है अपने काम से 

वो कभी आगाज़ कर सकहते नहीं 
ख़ौफ़ लगता है जिन्हे अंज़ाम से 

इक नजर महफ़िल में देखा था जिसे 
हम तो खोये है उसी मे शाम से

दोस्ती, चाहत, वफ़ा इस दौर में 
काम रख ऐ दोस्त अपने काम से

जिनसे कोई वास्ता तक है नहीं 
क्यों वो जलते है हमारे नाम से 

उसके दिल की आग ठंडी पड गयी
मुझको शोहरत मिल गयी इल्ज़ाम से

महफ़िलों में ज़िक्र मत करना मेरा 
आग लग जाती है मेरे नाम से 

*  *  *  *  * 
यहाँ तक आ गयी तन्हाई मेरी 
सदा देने लगी परछाई मेरी

में हर शै में उसीको देखता हूँ
परीशाँ  हैं बहुत बिनाई मेरी 

तअल्लुक तर्क़ होते ही अचानक 
बुराई बन गयी, अच्छाई मेरी 

बिछड़ते वक़्त ये लब सिल गए थे 
जुबां पर जम गयी थी काई,मेरी 

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नज़्म - तख्लीक़  

वो मुझसे कहती थी
मेरे शायर 
ग़ज़ल सुनाओ 
जो अनसुनी हो 
जो अनकही हो 
कि जिसके एहसास
अनछुए हों,
हों शेर ऐसे 
कि पहले मिसरे को
सुन के 
मन में 
खिले तजस्सुस 
का फूल ऐसा 
मिसाल जिसकी 
अदब में सारे 
कहीं भी ना हो....... 
में उससे कहता था 
मेरी जानां
ग़ज़ल तो कोई ये कह चुका है,
ये मोजज़ा तो 
खुदा ने मेरे 
दुआ से 
पहले ही कर दिया,
तमाम आलम की 
सबसे प्यारी 
जो अनकही सी 
जो अनसुनी सी 
जो अनछुई सी 
हसीं ग़ज़ल है--
"वो मेरे पहलू में 
   जलवागर है....... !!!"

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नज़्म - Nostalgia 

वो जब नाराज़ होती थी 
तो अपने गार्डन 
में जा के मुझको 
फ़ोन
 करती थी
सताने के लिए मुझको 
वो कहती थी 
बहुत बनने लगे हो तुम 
मज़ा तुमको चखाऊंगी 
तुम्हारी वो जो गुडिया है मेरे अंदर 
मैं उसकी 
उंगलियों में सैकड़ो कांटे 
चुभाऊंगी 
रुलाऊँगी 
मैं कहता था 
अगर तुमने 
मेरी प्यारी सी गुड़िया को 
रुलाया तो 
कसम से मैं 
तुम्हारा वो जो बाबू है 
मेरे अंदर 
मैं उसकी 
जान ले लूंगा....... !!!

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नज़्म - मोबाइल फ़ोन 

वो मोबाइल तुम्हारा था 
मेरी जानां 
कि जिसकी CONTACT BOOK में 
मुझे हर दिन 
नया इक नाम मिलता था 
कभी बाबू 
कभी शोना 
कभी बुद्धू 
कभी पागल 

वो मोबाइल तुम्हारा था 
मेरी जानां 
कि जिसके खूबसूरत से कवर पे 
फ़ोन के पीछे 
तुम्हारे और मेरे नाम के 
पहले वो दो अक्षर 
चमकते मुस्कुराते थे 

तुम्हारे फ़ोन पर अक्सर 
मेरी तस्वीर 
बन के वॉलपेपर 
मुस्कुराती थी 
मेरी हर कॉल की जिसमे 
RECORDING SAVE रहती थी 

मेरी आवाज़ को तुमने,
तुम्हारे फ़ोन की रिंगटोन पे 
सेट कर के रक्खा था 
कोई भी CALL आती थी 
तो तुम हर CALL से पहले 
मेरी आवाज़ सुनती थी

अब इक मुद्दत से कुछ रिश्ता नहीं
उस से फ़ोन  से मेरा 

मेरी जानां......

ना उससे कॉल आती हैं 
ना उसपे कॉल जाती है .........!!!!

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नज़्म - PERFUME 

तेरे परफ्यूम की खुशबू 
मेरी जानांं 
हमारे वस्ल पर पहले,
गले लगने से
मेरे फेवरेट 
स्वेटर पे 
मेरे साथ आई थी 
ये तेरे प्यार की 
तन पे मेरे 
पहली निशानी थी 
जिसे अब तक 
हिफ़ाज़त सी 
मेरी सारी 
मुहब्ब्त से 
सजा के मैंने रक्खा है 
ये खुशबू छूट ना जाए 
इसी दर से 
दोबारा 
मैंने उस स्वेटर को
 पहना है 
ना धोया है......... !!!
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