Sunday, 3 March 2013

फ़रहत शहज़ाद की गज़लें



खुली जो आँख तो वो था न वो जमाना था 
दहकती  आग थी, तन्हाई, थी फ़साना था 

ये क्या के चंद ही कदमो पे थक के बैठ गये 
तुम्हें  तो  साथ  मेरा  दूर तक निभाना था 

ग़मो  ने बाँट  लिया  है मुजे  यूं  आपस में 
के  जैसे  मैं  क़ोई  लूटा  हूआ  ख़ज़ाना था 

मुझे  जो  मेरे  लहू   में  डुबो  के  गुजरा है 

वो  कोंई  गैर  नहि  यार  एक   पुराना  था 

ख़ुद अपने हाथ से 'शहज़ाद' उस को काट दिया 

के जिस दरख्त के टहनी पे आशियाना था 


फ़रहत शहज़ाद 


फ़रहत शहज़ाद

12 comments:

  1. બહુ સરસ !!
    બ્લોગ જગતમાં આપણું સ્વાગત !
    આ સુંદર ગઝલ .... મને તો મહેંદી હસન સા. નો અવાજ સંભળાય છે .

    ReplyDelete
  2. sriram roy ji bhot bhot shukhriya...........nvajish

    ReplyDelete
  3. वाह!!!वाह!!! क्या कहने, बेहद उम्दा

    ReplyDelete
  4. आपने ब्लॉग पर आकार जो प्रोत्साहन दिया है उसके लिए आभारी हूं

    ReplyDelete
    Replies
    1. aap se hi to sikh rhe hai..or me sirf aapke blog se nhi aapse bhi zud gya hu

      Delete
  5. ख़ूबसूरत पेशकश ...


    ख़ुद अपने हाथ से 'शहज़ाद' उस को काट दिया
    के जिस दरख्त के टहनी पे आशियाना था

    ReplyDelete