खुली जो आँख तो वो था न वो जमाना था
दहकती आग थी, तन्हाई, थी फ़साना था
ये क्या के चंद ही कदमो पे थक के बैठ गये
तुम्हें तो साथ मेरा दूर तक निभाना था
ग़मो ने बाँट लिया है मुजे यूं आपस में
के जैसे मैं क़ोई लूटा हूआ ख़ज़ाना था
मुझे जो मेरे लहू में डुबो के गुजरा है
वो कोंई गैर नहि यार एक पुराना था
ख़ुद अपने हाथ से 'शहज़ाद' उस को काट दिया
के जिस दरख्त के टहनी पे आशियाना था
दहकती आग थी, तन्हाई, थी फ़साना था
ये क्या के चंद ही कदमो पे थक के बैठ गये
तुम्हें तो साथ मेरा दूर तक निभाना था
ग़मो ने बाँट लिया है मुजे यूं आपस में
के जैसे मैं क़ोई लूटा हूआ ख़ज़ाना था
मुझे जो मेरे लहू में डुबो के गुजरा है
वो कोंई गैर नहि यार एक पुराना था
ख़ुद अपने हाथ से 'शहज़ाद' उस को काट दिया
के जिस दरख्त के टहनी पे आशियाना था
फ़रहत शहज़ाद
फ़रहत शहज़ाद
બહુ સરસ !!
ReplyDeleteબ્લોગ જગતમાં આપણું સ્વાગત !
આ સુંદર ગઝલ .... મને તો મહેંદી હસન સા. નો અવાજ સંભળાય છે .
aabhar sanju bhai
Deletesriram roy ji bhot bhot shukhriya...........nvajish
ReplyDeleteवाह!!!वाह!!! क्या कहने, बेहद उम्दा
ReplyDeleteshukhriya bhai
Deleteआपने ब्लॉग पर आकार जो प्रोत्साहन दिया है उसके लिए आभारी हूं
ReplyDeleteaap se hi to sikh rhe hai..or me sirf aapke blog se nhi aapse bhi zud gya hu
Deletewaaaaah kya bat hai
ReplyDeletethank you
DeleteBahu saras...
ReplyDeleteख़ूबसूरत पेशकश ...
ReplyDeleteख़ुद अपने हाथ से 'शहज़ाद' उस को काट दिया
के जिस दरख्त के टहनी पे आशियाना था
shukriyaa
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