मंज़ूर हाशमी
मंज़ूर हाशमी
नई ज़मीं न कोई आसमान माँगते है
बस एक गोशा-ए-अमन-ओ-अमान माँगते है
कुछ अब के धूप का ऐसा मिज़ाज बिगड़ा है
दरख्त भी तो यहाँ साए-बान माँगते है
हमें भी आप से इक बात अर्ज़ करना है
पर अपनी जान की पहले अमान माँगते है
कुबूल कैसे करूँ उनका फैसला कि ये लोग
मिरे खिलाफ़ ही मेरा बयान माँगते है
हदफ़ भी मुझ को बनाना है और मेरे हरीफ़
मुझी से तीर मुझी से कमान माँगते है
नई फज़ा के परिंदे है कितने मतवाले
कि बाल-ओ-पर से भी पहले उड़ान माँगते है
* * *
न सुनती है न कहना चाहती है
हवा इक़ राज़ रहना चाहती है
न जाने क्या समाई है कि अब की
नदी हर सम्त बहना चाहती है
सुलगती राह भी वहशत ने चुन ली
सफ़र भी पा बरहना चाहती है
तअल्लुक़ की अजब दीवानगी है
अब उस के दुख भी सहना चाहती है
उजाले की दुआओं की चमक भी
चराग़-ए शब में रहना चाहती है
भँवर में आँधियों में बादबाँ में
हवा मसरुफ़ रहना चाहती है
* * *
सर पर थी कड़ी धूप बस इतना ही नहीं था
उस शहर के पेड़ों में तो साया ही नहीं था
पानी में जरा देर को हलचल तो हुई थी
फिर यूँ था कि जैसे कोई डूबा ही नहीं था
लिख्खे थे सफर पाँव में किस तरह ठहरते
और ये भी कि तुम ने पुकारा ही नहीं था
अपनी ही निगाहों पे भरोसा न रहेगा
तुम इतना बदल जाओगे सोचा ही नहीं था
* * *
यक़ीन हो तो कोई रास्ता निकलता है
हवा की ओट भी ले कर चराग जलता है
सफ़र में अब के ये तुम थे कि ख़ुश-गुमानी थी
यही लगा की कोई साथ साथ चलता है
लिखूँ वो नाम तो कागज़ पे फूल खिलते है
करूं ख़याल तो पैकर किसी का ढलता है
उम्मीदों ओ यास की रुत आती जाती रहेती है
मगर यक़ीन का मौसम नही बदलता है
- मंज़ूर हाशमी
न सुनती है न कहना चाहती है
हवा इक़ राज़ रहना चाहती है
न जाने क्या समाई है कि अब की
नदी हर सम्त बहना चाहती है
सुलगती राह भी वहशत ने चुन ली
सफ़र भी पा बरहना चाहती है
तअल्लुक़ की अजब दीवानगी है
अब उस के दुख भी सहना चाहती है
उजाले की दुआओं की चमक भी
चराग़-ए शब में रहना चाहती है
भँवर में आँधियों में बादबाँ में
हवा मसरुफ़ रहना चाहती है
* * *
सर पर थी कड़ी धूप बस इतना ही नहीं था
उस शहर के पेड़ों में तो साया ही नहीं था
पानी में जरा देर को हलचल तो हुई थी
फिर यूँ था कि जैसे कोई डूबा ही नहीं था
लिख्खे थे सफर पाँव में किस तरह ठहरते
और ये भी कि तुम ने पुकारा ही नहीं था
अपनी ही निगाहों पे भरोसा न रहेगा
तुम इतना बदल जाओगे सोचा ही नहीं था
* * *
यक़ीन हो तो कोई रास्ता निकलता है
हवा की ओट भी ले कर चराग जलता है
सफ़र में अब के ये तुम थे कि ख़ुश-गुमानी थी
यही लगा की कोई साथ साथ चलता है
लिखूँ वो नाम तो कागज़ पे फूल खिलते है
करूं ख़याल तो पैकर किसी का ढलता है
उम्मीदों ओ यास की रुत आती जाती रहेती है
मगर यक़ीन का मौसम नही बदलता है
- मंज़ूर हाशमी
वाह बहुत सुंदर गजले , साझा करने के लिए सुक्रिया
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत ही लाजवाब
और सशक्त गजल
thank you
Deleteशुभ प्रभात
ReplyDeleteऔर भी बेहतरीन ग़ज़लें होंगी इस किताब में
सब को साझा करें
सादर
ji, jurur ...thank you
Deleteबेहतरीन ग़ज़लें
ReplyDeleteलाजवाब ... बेहतरीन ... मंज़ूर साहब की सभी गजलें बहुत ही लाजवाब हैं ...
ReplyDeleteअलग अंदाज़ की बेहतरीन ग़ज़लें ...
bahot bahot shukreeya
ReplyDeleteshukriya itani achhi gazalon se milwane ke liye :)
ReplyDeletethank you
DeleteUmda gazalen Padhwai.... Abhar
ReplyDeleteखूबसूरत ग़ज़ल पढवाने के लिए आभार भाई !
ReplyDeleteAshokji ...
DeleteAchhi gazal padvane ke liye dil ..se...sukargujar hu
bahut bahut shukriyaa
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