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Friday, 26 July 2013

मंज़ूर हाशमी की गज़ले

मंज़ूर हाशमी 

मंज़ूर हाशमी 

नई   ज़मीं  न  कोई   आसमान  माँगते  है
 बस एक गोशा-ए-अमन-ओ-अमान  माँगते है

कुछ अब के धूप का ऐसा मिज़ाज बिगड़ा है
दरख्त  भी तो यहाँ  साए-बान  माँगते है

हमें  भी आप से  इक  बात अर्ज़ करना है
पर अपनी जान की पहले अमान  माँगते है

कुबूल कैसे करूँ उनका फैसला कि ये लोग
मिरे  खिलाफ़  ही मेरा  बयान माँगते है

हदफ़ भी मुझ को बनाना है और मेरे हरीफ़ 
मुझी  से  तीर  मुझी से  कमान माँगते है

नई फज़ा  के परिंदे  है कितने  मतवाले
कि बाल-ओ-पर से भी पहले उड़ान माँगते है
* * *
न सुनती है न कहना चाहती है
हवा इक़ राज़ रहना चाहती है

न जाने क्या समाई है कि अब की

नदी हर सम्त बहना चाहती है

सुलगती राह भी वहशत ने चुन ली

सफ़र भी पा बरहना चाहती है

तअल्लुक़ की अजब दीवानगी है

अब उस के दुख भी सहना चाहती है

उजाले की दुआओं की चमक भी

चराग़-ए शब में रहना चाहती है

भँवर में आँधियों में बादबाँ में

हवा मसरुफ़ रहना चाहती है
* * *
सर पर थी कड़ी धूप बस इतना ही नहीं था
उस शहर के पेड़ों में तो साया ही नहीं था

पानी में जरा देर को हलचल तो हुई थी

फिर यूँ था कि जैसे कोई डूबा ही नहीं था

लिख्खे थे सफर पाँव में किस तरह ठहरते

और ये भी कि तुम ने पुकारा ही नहीं था

अपनी ही निगाहों पे भरोसा न रहेगा

तुम इतना बदल जाओगे सोचा ही नहीं था
* * * 
यक़ीन हो तो कोई रास्ता निकलता है
हवा की ओट भी ले कर चराग जलता है

सफ़र में अब के ये तुम थे कि ख़ुश-गुमानी थी

यही लगा की कोई साथ साथ चलता है

लिखूँ वो नाम तो कागज़ पे फूल खिलते है

करूं ख़याल तो पैकर किसी का ढलता है

उम्मीदों ओ यास की रुत आती जाती रहेती है

मगर यक़ीन का मौसम नही बदलता है
मंज़ूर हाशमी