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Thursday, 4 April 2013

असलम मीर की गज़लें




 मेरे दोस्त असलम मीर की तीन बहतरीन ग़ज़ल 



ज़ात    बेरंग    तो   बेनुर   सा  लहजा   करता 
कब  तलक  तु  हि  बता  में तेरा सदमा करता 

कोइ   मिलता   जो   ख़रीदार   मुक़ाबिल  मेरे 
शौक़ से में भी दिल-ओ-जान  का सौदा करता

तुने  अच्छा  हि  किया  देके ना आने की ख़बर 
वर्ना    ताउम्र    तेरी   राह   में   देखा   करता 

जैसे करता है हर  एक  शख्स  पे ऐसे ही कभी 
अय  मेरे दोस्त  तू  ख़ुद पर भी भरोसा करता

थी  ये  दानाई   कहां  की  जो  अंधेरें  के  लीये 
ख़ुद ही घर अपना  जलाकर में उजाला करता

   सु-ए-आईना कभी  जाती जो  नज़रें  'असलम '    
जाने  क्या  क्या में  मुझे देख के सोचा करता 

- असलम मीर

 चाल  माना  की  मुखालिफ़  वो   मेरे   चलता   नहीं
ये    भी   सच  है  मात   देने  से  कभी  रुकता  नहीं

लोग   कहते   है   की  मेरी   ज़ात  हे  दरीया सिफ़त 
वाक़ई  ये  सच  हे  तो  में   किस  लिये  बहता  नहीं

बात  तन्हा  क्या  करे  वहम-ओ-गुमाँ की हम भला  
बाखुदा  अब  तो  हक़ीक़त  में  भी  कुछ  रक्खा नहीं 

ये  अलग  हे  बात  जो  आता   नहीं   तुझको  नज़र 
वर्ना   तेरे   वास्ते   दिल   में   मेरे  क्या क्या   नहीं

क़ार-ए-दरीया    की   हक़ीक़त   जान ने   के  वास्ते 
साहिलों   पर   बैठकर   हमने   कभी    देखा    नहीं 

जाबजा  सबकुछ  ही  मिल  जाता  हे   ता हद्दे-नज़र 
बस  वजूद-ए-ज़ात का नाम-ओ-निशाँ मिलता नहीं 

तज़किरा  करता हे 'असलम '  हम से  दीवानों पे वो 
जो  कभी    दीवानगी   की   राह   से   गुज़रा   नहीं
 
-असलम मीर    
     
जहाँ   देखो   वहाँ   मील   जायेगी  परछाइयाँ  अपनी
बहुत    मशहूर   हैं   इस   शेहर   में  रुस्वाइयाँ अपनी

तुम्हारी  तुम  ही  जानो एहले-दाना, ऐ  खिरद  वालो
हमे   तो   रास   आती   हैं   सदा   नादानियाँ   अपनी

दिले-नाशाद   तेरा   क्या   करे   आबाद   होकर   भी
हमेशा   याद   रहती   हैं   तुझे    बरबादियाँ    अपनी

बलन्दी  की  हकीक़त का  मज़ा  हरगिज़ न पाओगे
अगर   देखी   नहीं    हैं   आपने  नाकामियाँ   अपनी

हीसारे-दीद    से   बचना  बहुत  दुशवार  था लेकिन
खुदा  का   शुक्र   हे   महफूज़  हैं  खामोशियाँ अपनी

न  जाने  कब  मुकम्मल   देख   पायेगे   वजूदे-ज़ात
कहीं  हम   हे, कहीं पैकर, कहीं  परछाइयाँ   अपनी

सरापा    सुरते-गुलशन    सभी    से   पेश    आयेगी
नुमायाँ   हो  नहीं   सकती  कभी वीरानियाँ  अपनी

सुनेगा   और   कोई  किस तरह फरमाईये 'असलम '
कि जब तुम ही नहीं सुन पा रहे सरगोशियाँ अपनी

-असलम मीर