मेरे दोस्त असलम मीर की तीन बहतरीन ग़ज़ल
ज़ात बेरंग तो बेनुर सा लहजा करता
कब तलक तु हि बता में तेरा सदमा करता
कोइ मिलता जो ख़रीदार मुक़ाबिल मेरे
शौक़ से में भी दिल-ओ-जान का सौदा करता
तुने अच्छा हि किया देके ना आने की ख़बर
वर्ना ताउम्र तेरी राह में देखा करता
जैसे करता है हर एक शख्स पे ऐसे ही कभी
अय मेरे दोस्त तू ख़ुद पर भी भरोसा करता
थी ये दानाई कहां की जो अंधेरें के लीये
ख़ुद ही घर अपना जलाकर में उजाला करता
सु-ए-आईना कभी जाती जो नज़रें 'असलम '
जाने क्या क्या में मुझे देख के सोचा करता
- असलम मीर
जाने क्या क्या में मुझे देख के सोचा करता
- असलम मीर
चाल माना की मुखालिफ़ वो मेरे चलता नहीं
ये भी सच है मात देने से कभी रुकता नहीं
लोग कहते है की मेरी ज़ात हे दरीया सिफ़त
वाक़ई ये सच हे तो में किस लिये बहता नहीं
बात तन्हा क्या करे वहम-ओ-गुमाँ की हम भला
बाखुदा अब तो हक़ीक़त में भी कुछ रक्खा नहीं
ये अलग हे बात जो आता नहीं तुझको नज़र
वर्ना तेरे वास्ते दिल में मेरे क्या क्या नहीं
क़ार-ए-दरीया की हक़ीक़त जान ने के वास्ते
साहिलों पर बैठकर हमने कभी देखा नहीं
जाबजा सबकुछ ही मिल जाता हे ता हद्दे-नज़र
बस वजूद-ए-ज़ात का नाम-ओ-निशाँ मिलता नहीं
तज़किरा करता हे 'असलम ' हम से दीवानों पे वो
जो कभी दीवानगी की राह से गुज़रा नहीं
-असलम मीर
जहाँ देखो वहाँ मील जायेगी परछाइयाँ अपनी
बहुत मशहूर हैं इस शेहर में रुस्वाइयाँ अपनी
तुम्हारी तुम ही जानो एहले-दाना, ऐ खिरद वालो
हमे तो रास आती हैं सदा नादानियाँ अपनी
दिले-नाशाद तेरा क्या करे आबाद होकर भी
हमेशा याद रहती हैं तुझे बरबादियाँ अपनी
बलन्दी की हकीक़त का मज़ा हरगिज़ न पाओगे
अगर देखी नहीं हैं आपने नाकामियाँ अपनी
हीसारे-दीद से बचना बहुत दुशवार था लेकिन
खुदा का शुक्र हे महफूज़ हैं खामोशियाँ अपनी
न जाने कब मुकम्मल देख पायेगे वजूदे-ज़ात
कहीं हम हे, कहीं पैकर, कहीं परछाइयाँ अपनी
सरापा सुरते-गुलशन सभी से पेश आयेगी
नुमायाँ हो नहीं सकती कभी वीरानियाँ अपनी
सुनेगा और कोई किस तरह फरमाईये 'असलम '
कि जब तुम ही नहीं सुन पा रहे सरगोशियाँ अपनी
-असलम मीर
बहुत मशहूर हैं इस शेहर में रुस्वाइयाँ अपनी
तुम्हारी तुम ही जानो एहले-दाना, ऐ खिरद वालो
हमे तो रास आती हैं सदा नादानियाँ अपनी
दिले-नाशाद तेरा क्या करे आबाद होकर भी
हमेशा याद रहती हैं तुझे बरबादियाँ अपनी
बलन्दी की हकीक़त का मज़ा हरगिज़ न पाओगे
अगर देखी नहीं हैं आपने नाकामियाँ अपनी
हीसारे-दीद से बचना बहुत दुशवार था लेकिन
खुदा का शुक्र हे महफूज़ हैं खामोशियाँ अपनी
न जाने कब मुकम्मल देख पायेगे वजूदे-ज़ात
कहीं हम हे, कहीं पैकर, कहीं परछाइयाँ अपनी
सरापा सुरते-गुलशन सभी से पेश आयेगी
नुमायाँ हो नहीं सकती कभी वीरानियाँ अपनी
सुनेगा और कोई किस तरह फरमाईये 'असलम '
कि जब तुम ही नहीं सुन पा रहे सरगोशियाँ अपनी
-असलम मीर
Bahut khobsoorat gazalen.
ReplyDeleteaslam mir or meri traf se aapka shukhriya
Deleteबेहतरीन ग़ज़लें
ReplyDeleteब्लाग फॉलो करने की जगह बनाइये
कमी खटक रही है
सादर
मेरे बागीचे
http://nayi-purani-halchal.blogspot.com/
http://yashoda4.blogspot.in/
http://4yashoda.blogspot.in/
http://yashoda04.blogspot.in/
ji jurur
Deleteji jrur...blog ki duniya mere liye abhi nyi hai....aapka margdarshn bhot jruri hai...or kya krna hoga ye b muje khul kr btao...shukhriya
ReplyDeleteहिन्दी ब्लॉगजगत के स्नेही परिवार में इस नये ब्लॉग का और आपका मैं संजय भास्कर हार्दिक स्वागत करता हूँ.
ReplyDeleteaapka bhot bhot shukhjriya
Deleteहिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
ReplyDeleteकृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें
ji jrur kyoki mera maqsad hi yhi hai sb ko pdhu .....
Deleteshukhriya sbhi ka thank you
ReplyDeletewaaaah aslam miya waaaaaaaa
ReplyDeletethank you
ReplyDeleteबहुत बढ़िया गज़लें
ReplyDeleteबेहतरीन गज़ल की खूबसूरत प्रस्तुति .....
ReplyDeletethank you
Deleteबहुत खूबसूरत ग़ज़लें ।
ReplyDeletethank you
Deleteवाह ... कमाल की गज़लों का गुलदस्ता ...
ReplyDeletethank you
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