Sunday 1 May 2016

सिराज फ़ैसल खान की ग़ज़लें और नज़्में

सिराज फ़ैसल खान 



माना मुझको दार पे लाया जा सकता है 
लेकिन मुर्दा शहर जगाया जा सकता है 

लिक्खा हैं तारीख़ सफ़हे सफ़हे पर ये 
शाहों को भी दास बनाया जा सकता है 

चाँद जो रूठा राते काली हो सकती है 
सूरज रूठ गया तो साया जा सकता है 

शायद अगली इक कोशिश तक़दीर बदल दें 
ज़हर तो जब जी चाहें खाया जा सकता है 

कब तक धोखा दे सकते है आईने को 
कब तक चेहरे को चमकाया जा सकता है 

पाप सभी कुटिया के भीतर हो सकते है 
हुजरे के अंदर सब खाया जा सकता है 

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वो बड़े बनते हैं अपने नाम से 
हम बड़े बनते है अपने काम से 

वो कभी आगाज़ कर सकहते नहीं 
ख़ौफ़ लगता है जिन्हे अंज़ाम से 

इक नजर महफ़िल में देखा था जिसे 
हम तो खोये है उसी मे शाम से

दोस्ती, चाहत, वफ़ा इस दौर में 
काम रख ऐ दोस्त अपने काम से

जिनसे कोई वास्ता तक है नहीं 
क्यों वो जलते है हमारे नाम से 

उसके दिल की आग ठंडी पड गयी
मुझको शोहरत मिल गयी इल्ज़ाम से

महफ़िलों में ज़िक्र मत करना मेरा 
आग लग जाती है मेरे नाम से 

*  *  *  *  * 
यहाँ तक आ गयी तन्हाई मेरी 
सदा देने लगी परछाई मेरी

में हर शै में उसीको देखता हूँ
परीशाँ  हैं बहुत बिनाई मेरी 

तअल्लुक तर्क़ होते ही अचानक 
बुराई बन गयी, अच्छाई मेरी 

बिछड़ते वक़्त ये लब सिल गए थे 
जुबां पर जम गयी थी काई,मेरी 

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नज़्म - तख्लीक़  

वो मुझसे कहती थी
मेरे शायर 
ग़ज़ल सुनाओ 
जो अनसुनी हो 
जो अनकही हो 
कि जिसके एहसास
अनछुए हों,
हों शेर ऐसे 
कि पहले मिसरे को
सुन के 
मन में 
खिले तजस्सुस 
का फूल ऐसा 
मिसाल जिसकी 
अदब में सारे 
कहीं भी ना हो....... 
में उससे कहता था 
मेरी जानां
ग़ज़ल तो कोई ये कह चुका है,
ये मोजज़ा तो 
खुदा ने मेरे 
दुआ से 
पहले ही कर दिया,
तमाम आलम की 
सबसे प्यारी 
जो अनकही सी 
जो अनसुनी सी 
जो अनछुई सी 
हसीं ग़ज़ल है--
"वो मेरे पहलू में 
   जलवागर है....... !!!"

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नज़्म - Nostalgia 

वो जब नाराज़ होती थी 
तो अपने गार्डन 
में जा के मुझको 
फ़ोन
 करती थी
सताने के लिए मुझको 
वो कहती थी 
बहुत बनने लगे हो तुम 
मज़ा तुमको चखाऊंगी 
तुम्हारी वो जो गुडिया है मेरे अंदर 
मैं उसकी 
उंगलियों में सैकड़ो कांटे 
चुभाऊंगी 
रुलाऊँगी 
मैं कहता था 
अगर तुमने 
मेरी प्यारी सी गुड़िया को 
रुलाया तो 
कसम से मैं 
तुम्हारा वो जो बाबू है 
मेरे अंदर 
मैं उसकी 
जान ले लूंगा....... !!!

* * * * * * *

नज़्म - मोबाइल फ़ोन 

वो मोबाइल तुम्हारा था 
मेरी जानां 
कि जिसकी CONTACT BOOK में 
मुझे हर दिन 
नया इक नाम मिलता था 
कभी बाबू 
कभी शोना 
कभी बुद्धू 
कभी पागल 

वो मोबाइल तुम्हारा था 
मेरी जानां 
कि जिसके खूबसूरत से कवर पे 
फ़ोन के पीछे 
तुम्हारे और मेरे नाम के 
पहले वो दो अक्षर 
चमकते मुस्कुराते थे 

तुम्हारे फ़ोन पर अक्सर 
मेरी तस्वीर 
बन के वॉलपेपर 
मुस्कुराती थी 
मेरी हर कॉल की जिसमे 
RECORDING SAVE रहती थी 

मेरी आवाज़ को तुमने,
तुम्हारे फ़ोन की रिंगटोन पे 
सेट कर के रक्खा था 
कोई भी CALL आती थी 
तो तुम हर CALL से पहले 
मेरी आवाज़ सुनती थी

अब इक मुद्दत से कुछ रिश्ता नहीं
उस से फ़ोन  से मेरा 

मेरी जानां......

ना उससे कॉल आती हैं 
ना उसपे कॉल जाती है .........!!!!

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नज़्म - PERFUME 

तेरे परफ्यूम की खुशबू 
मेरी जानांं 
हमारे वस्ल पर पहले,
गले लगने से
मेरे फेवरेट 
स्वेटर पे 
मेरे साथ आई थी 
ये तेरे प्यार की 
तन पे मेरे 
पहली निशानी थी 
जिसे अब तक 
हिफ़ाज़त सी 
मेरी सारी 
मुहब्ब्त से 
सजा के मैंने रक्खा है 
ये खुशबू छूट ना जाए 
इसी दर से 
दोबारा 
मैंने उस स्वेटर को
 पहना है 
ना धोया है......... !!!
* * * * * *

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Saturday 11 April 2015

शमीम हयात की ग़ज़लें और नज्में

शमीम हयात 

* * *
मिट  गये  सब   गिले रंज  जाता  रहा
वो   मुझे   देख  कर  मुस्कुराता  रहा

बाद  मुद्दत  के  लौटा   था  वो गाँव  में
सबको बचपन के किस्से सुनाता  रहा

ओढ  कर  शाल  बैठा  था  दालान  में
कौन  मेरी   गज़ल   गुनगुनाता  रहा

मेरी  यादों  के  जंगल  में  पागल हवा

बन  के  आया  था  वो सरसराता रहा

क्या खबर थी के आएँगी फिर आंधियाँ

मैं    मुंडेरों   पे   दीपक   जलाता  रहा

आखिरश मौत उसको भी लेकर गयी

वो जो  अपने  को  खुद  रब बताता रहा

जिसने कांटे बिखेरे  क़दम दर क़दम

उसकी राहों में मैं गुल बिछाता  रहा

वो तो  तकदीर में था  किसी और की

मैं   मुक़द्दर   जहाँ   आज़माता  रहा

अपने  इमाँ ' हयात ' हम बचाते रहे

गो   जमाना   हमें   आजमाता  रहा
*  *  *  *  *
* * *
बर्गद  जला  दिए  कभी  संदल जला दिए
हम ने  तुम्हारी याद  के जंगल जला दिए

धरती  तरस  रही  है  एक  एक  बूँद  को

लगता  है  तेज  धूप  ने बादल जला दिए

बचपन  को  फूल  बेंचते  देखा  है धूप में

क्या मुफलिसी ने मांओं के आँचल जला दिए

तुम तो ' हयात ' सब की ही बातों में आ गए

जो  भी मिले  थे  प्यार के वो पल जला दिए
*  *  *  *  *
* * *
ख़बर ये हो गयी कैसे ख़ुदा जाने ज़माने को
के मैं बेचैन रहेता  हूँ तेरे नज़दीक आने को

ज़मीनें हो अगर मशकूक तो रिश्ते नहीं उगते

भरोसा भी ज़रुरी है किसी का प्यार पाने को

दुपट्टा उसने ऊँगली पर लपेटा देर तक यूँ ही

न सुजा जब उसे कुछ भी नज़र मुझसे चुराने को

उसे भी थी ख़बर इसकी नहीं आसान यें इतना

मगर कहेता रहा मुझसे वो ख़ुदको भूल जाने को

बिछड़ते वक़्त बस सारे गिले शिकवे भुला देते

कहा था कब भला मैंने सितारे तोड़ लाने को

'हयात' आते फ़कत रस्मन दिलासे के लिए इक दिन

कोई आता नहीं हरगिज किसी के ग़म उठाने को
* * *
* * *
चाँद, सितारे, नदियाँ, सागर, धरती, अंबर महकेंगे
तुम आओ तो पतझड़ में भी गुल शाखों पर महकेंगे

संदल की खुश्बू का डेरा है अब तेरी जुल्फों में

गर बैठी जूडे में तेरे तितली के पर महकेंगे

ऐ हमराही जिन रास्तों से गुजरोगे तुम साथ मेरे

उन रास्तों के मौसम तो क्या, कंकड़, पत्थर महकेंगे

तुम रूठो तो फिर रूठेंगे झोंकें मस्त हवाओं के

तुम को छू कर आने वाले किसको छू कर महकेंगे

ख़्वाबों की इन देहलीज़ों पर आँखें दीप जलाती हैं

कब नींदों की बस्ती में फिर सपनो के घर महकेंगे

इक दिन तू बिछ्डेगा लेकिन मुझको ये लगता है 'हयात'

बरसों तक ये मेज़ ये कुर्सी, तकिया, चादर महकेंगे
* * *
* * *
बहारों के सभी खुशरंग मंज़र छोड़ आया हूँ
मैं अपने गाँव खुशिया भरा घर छोड़ आया हूँ

किया करते थे जिसकी छांव में पहरों तलक बातें

नदी के पार वो तन्हा सनोबर छोड़ आया हूँ

तुम्हारी राह से उठकर चला आया हूँ मैं लेकिन

वो रास्ता देखती आँखे वहीं पर छोड़ आया हूँ

मैं उस घर से उठा लाया हूँ सब यादें लड़कपन की

मगर मेहराब में बैठे कबूतर छोड़ आया हूँ

रिझाते हो मुझे तुम क्या दिखा कर प्यार के सपने

कहीं पीछे मैं चाहत का समन्दर छोड़ आया हूँ

अभी नादान है कैसे सम्भालेगा खुदा जाने

मैं इक दस्त-ए-हिनाई में मुकददर छोड़ आया हूँ

सफर में मुद्दतों से हूँ अभी भी दूर है मंज़िल

मैं पीछे अनगिनत मीलों के पत्थर छोड़ आया हूँ

'हयात' उसकी मुहब्बत के सभी तोहफे बहा आया

मैं इक तूफ़ान दरिया में जगा कर छोड़ आया हूँ
* * *
* * *
अपने पराये
सोचता हूँ तो याद आते है
वो दिन जब ख्वाब भी हकीकत बन गये थे जैसे
इज्ज़त, दौलत, शोहरत और बेशुमार महोबत भी
पर सबसे बढ़ कर अपनों का साथ
कितना अच्छा होता है ये अहेसास
जब हम अपने गिर्द महेसूस करते है
अपनों की महोब्बत और ख़ुलूस को….
मैं खुश किस्मत हूँ के मैंने महेसूस किया
मगर
ज़िन्दगी इतनी आसाँ नहीं है
ज़िन्दगी यश चोपरा की फिल्म जैसी नहीं है
जहा आख़िरी वक़्त में सब अच्छा हो जाता है…
इज्ज़त, दौलत, शोहरत और महोबत
कितना मुकम्मल लगता है ??
सिर्फ एक लफ्ज़ दौलत हटा दीजिये
फिर देखिये ज़िंदगी कितनी बेरहम हो सकती है
आज भी मैं देखता हु अपने उन अज़ीजों को
दूर खड़े हुए उल्जे लिबासो में
चहेरों पे ताज़गी और आँखों में चमक लिए
होंठों पे एक मुकम्मल मुस्कान सजाये
सब के सब जाने पहेचाने से लगते है…
मगर अपना कोई  नहीं लगता … 
* * *
* * *
मैं तेरी साँसों को अपनी सांसो से मेहकादूंगा
तुम फूलों सी हंसती रेहना मैं भंवरा बन जाऊंगा

उल्जे-उल्जे बिस्तर पर फिर रात की काली चादर में
उम्मीदों का सागर लेकर दो नैनों की गागर में
तुम नींदों की सेज सजाना मैं सपनो में आऊंगा 
तुम फूलों सी हंसती रेहना मैं भंवरा बन जाऊंगा

कब से तकता हूँ मैं तुम को जाने कब से बेकल हूँ
तुम तो हो अंन बरसी बदरी मैं इक प्यासा मरुथल हूँ
जाने कब तुम बरसोगी मैं अपनी प्यास बुझाऊंगा
तुम फूलों सी हंसती रेहना मैं भंवरा बन जाऊंगा

मेरी ग़ज़लें, मेरी नज़्में, मेरे गीत अधूरे हैं
सोयी है पैरों में पायल सुर संगीत अधूरे है
इठलाती तुम चल कर आना जब मैं गीत सुनाऊंगा
तुम फूलों सी हंसती रेहना मैं भंवरा बन जाऊंगा

धीरे धीरे बाँध के मुझको चुपके चुपके चोरी से
खींच रही हो किन रास्तों पर तुम सपनो की डोरी से
नैनो के इन गलियारों में लगता है खो जाऊँगा
तुम फूलों सी हंसती रेहना मैं भंवरा बन जाऊंगा

रजनी गंधा महक रही है कब से घर के आँगन में
जीवन साथी तुम भी महेको आओ मेरे जीवन में
इंद्र धनुष के रंग चुरा के सूनी मांग सजाऊंगा
तुम फूलों सी हंसती रेहना मैं भंवरा बन जाऊंगा
* * *
शमीम हयात साहब का  फेसबुक लिंक 
Shameem Hayat

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